tag:blogger.com,1999:blog-9934941516621527592023-06-21T09:57:36.596+05:30अपनी टोलीइसी सोच के साथ यह टोली बनी है कि हम अपनी बातो को साझा कर सके. सबके साथ...बिक्रम प्रताप सिंहhttp://www.blogger.com/profile/04887757195597338956noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-14393640802681577482009-08-03T15:16:00.002+05:302009-08-03T15:29:23.771+05:30कौन है प्रोग्रेसिव, बताइए<div>प्रोग्रेसिव माइंड आखिर बला क्या है? सभ्यता-संस्कृति से इसका ताल्लुक क्या है? खबरिया चैनलों में आये दिन गे-कल्चर, पब-कल्चर, गर्ल फ्रेंड-बॉय फ्रेंड और गोत्र से जुडी लाफ्फेबाजी सुनने को मिलती है. कोई खुद को नए युग का नुमईन्दा कहकर परिवर्तन विरोधियों कि आलोचना करता है. तो कोई स्वयं को संस्कृति का पहरेदार बता समाजिक मर्यादाओं कि पैरोकारी करता है. वैसे दार्शनिक रूसो ने लिखा है कि "मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, परन्तु सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है. स्वाभाविक प्रसन्नता एवं सुख के लिए उसे उन सभी संस्थओं को नष्ट कर देना चाहिए जो उन्हें जकडे हुए है." दूसरी ओर महान आस्ट्रियाई चांसलर मेटेर्निक का कहना था कि " जो जैसा है वैसा रहने दो. परिवर्तन तो पागलपन है. हमारा वर्तमान समाज कई हजार वर्षों कि प्रगतिशीलता का नतीजा है ओर कई वर्षों से ऐसे ही है." इन दोनों के विचारों के लाखों समर्थक मिल जायेंगे. पर दोनों में प्रोग्रेसिव कौन है कहना मुश्किल है. मैंने भी प्रोग्रेसिव माइंड बला पर विचार किया.</div><div><br /></div><div>कुछ दिन पहले किसी चैनल पर गे-कपल के शादी की खबर सुनी थी. दोनों मर्द खुश दिख रहे थे. प्रोग्रेसिवों की जमात जश्न मनाने में तल्लीन थी. इस तस्वीर के पीछे एक और तस्वीर छिपी थी. उस तस्वीर में इन दोनों मर्दों के परिजनों का रुआंसा चेहरा था. उस चेहरे में वो दुःख और शर्म साफ़ दिख रही थी जो उन्हें उनके अपने खून ने दी थी. प्रोग्रेसिवों का तर्क मर्द-मर्द राजी तो क्या करेगा काजी के सिद्धांत पर आधारित था. वहीँ उनके परिजन सामने आने से भी कतरा रहे थे. शायद वे स्वयं को उस मर्यादा के टूटने का दोषी मान रहे थे जिसे कभी हमारे प्रोग्रेसिव सोच वाले पुरखों ने बनाया होगा. निश्चय ही इस मर्यादा के टूटने से बहुमत के ह्रदय पर ही चोट लगी होगी.</div><div><br /></div><div><br /></div><div>हरियाणा में चल रहे ताजातरीन गोत्र विवाद से शायद "प्रोग्रेसिव माइंड" की धारणा स्पष्ट हो सके? हिन्दू समाज में सगोत्रीय विवाह वर्जित है. पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में ही में समझ गया था की हरियाणा में गोत्र की जड़े अग्नि-3 मिसाइल की कुल मारक क्षमता से भी अधिक गहरी है. "गोत्र सिद्धान्त" की रक्षा का भार खापों ने संभाल रखा है. खाप की कार्यप्रणाली होती तो तानाशाही हैं, लेकिन उनका आधार लोगों का अपार जनसमर्थन है. प्रोग्रेसिव समाज में लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ट राजनीतिक व्यवस्था मन जाता है. लोकतंत्र का आधार भी बहुमत है. जब दोनों का बेस पब्लिक है तो दोनों में प्रोग्रेसिव कौन है?</div><div><br /></div><div><br /></div><div>लिव-इन सिस्टम भी प्रोग्रेसिव माइंड की नई उपज है. जब तक लड़का-लड़की में सहमति है वे बगैर शादी के साथ रह सकते हैं. पैदा होने वाले बच्चे को भी कानूनी मान्यता(महाराष्ट्र में) है तो शादी की क्या जरूरत है. बड़े-बड़े महात्माओ ने कहा है की स्वयं को बंधन मुक्त करों? यदि विवाह संस्था टूटती है तो टूटे, ऐसे लोग आधुनिक समाज में इज्जत के साथ रहते हैं. वहीँ दूसरी और सामूहिकता के सिद्धांत में यकीन रखने वाले लोग इसे बुरी निगाहों से देखते हैं. उनका तर्क है की लिव-इन सिस्टम एकांगी है जबकि विवाह संस्था है, जिसमे कई लोग जुड़े होते हैं. अब दोनों में कौन प्रोग्रेसिव है, मै नहीं जानता?</div><div><br /></div><div><br /></div><div>मेरे एक करीबी मित्र ने फ़िल्मी अंदाज में मंदिर जाकर अपनी प्रेमिका से शादी कर ली. मित्र महोदय का विचार था की एक बार शादी हो जाने के बाद परिजनों की ना-नुकुर सब बंद हो जायेगा और उनके रिश्ते को दोनों पक्ष स्वाकार कर लेंगे. जैसा की कई मसालेदार मुम्बईया फिल्मों में होता रहा है. पर उनका अनुमान गलत निकला. दोनों पक्ष के परिजन, भाई-बन्धु सभी नाराज है. उनके दबाव में दोनों ने अलग रहने का फैसला किया. हालाँकि दोनों अभी-भी रिश्ते की डोर में बंधे हुए हैं. मित्र मण्डली में अधिकांश की सहानभूति "प्रोग्रेसिव" कदम उठाने वाले दोस्त के साथ है. लेकिन कुछ कहते हैं ऐसे रिश्ते का क्या फायदा जिसमे कोई खुश न हो. लेकिन भइया ये तो प्रेम-प्रसंग का मामला है. प्रेम के लिए पृथवीराज चौहान ने सयोंगिता हरण प्रकरण में अपने हजारों वीर सैनिकों को कुर्बान करना स्वीकार कर लिया था.</div><div><br /></div><div><br /></div><div>प्रश्न गंभीर है. दोनों के अपने तर्क है. इतने मंथन के बाद मै सिर्फ इतना समझ पाया हूँ कि जिस सोच से कम से कम लोगों को दुःख हो और जिस कृत्य से अधिक से अधिक लोग प्रसन्न हों (जिसमे आप भी शामिल हों.) वाही प्रोग्रेसिव है. वैसे कैम्ब्रिज-ऑक्सफोर्ड से पढ़े लिखों की जमात में संस्कृति-सभ्यता-संस्कार की बात करना भी "पाखंड" की श्रेणी में आता है. हमारे महानगरों का बहुमत उन्ही से प्रभावित है. सो, उनके बीच मै सभ्यता-संस्कृति-संस्कार की बात करने की जुर्रत भी नहीं कर सकता. अब आप ही बताईये प्रोग्रेसिव माइंड आखिर बला क्या है.</div><div><br /></div><div><br /></div>shantanuhttp://www.blogger.com/profile/15569001084732184655noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-73852085609053496312009-07-30T13:04:00.007+05:302009-07-30T21:05:07.447+05:30बलूचिस्तान के मायने<p>बलूचिस्तान का नाम आते ही जेहन में दो तस्वीर उभर कर आती है. इनमे से एक में पाकिस्तानी सैनिको ने कुछ बलूचियों के सर को अपने बूट के नीचे बड़ी निर्ममता से दबा रखा था. दूसरी तस्वीर में कलात के खान बुगती का शव की है. इस तस्वीर में मौजूद कुछ बलूची नवयुवकों की आँखों में पाकिस्तानी सैनिकों के प्रति उनका गुस्सा साफ़ झलक रहा था. इन दोनों तस्वीरों को कुछ साल पहले इन्टरनेट पर देखा था.</p><p><span class=""></span></p><p>बलूचिस्तान, पाकिस्तान का सरहदी सूबा है. पाकिस्तान के इस सबसे बड़े राज्य की सीमा ईरान और अफगानिस्तान को छूती है.पाकिस्तान में बलूचियों की आबादी महज ६.५ मिलियन है, जो कि सिन्धी और पंजाबी मुस्लिमों के मुकाबले काफी कम है. हालाँकि ईरान में इनकी अच्छी खासी तादाद मौजूद हैं . बलूची आम तौर पर कबीलाई जीवन शैली में रचे-बसे होते हैं और किसी दूसरी कौम की सरपरस्ती पसंद नहीं करते हैं. शायद यही वजह थी कि जब हिंदुस्तान के बटवारे की बात चल रही थी, तब कलात के खान ने बलूची जनमानस की नुमाइंदगी करते हुए बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करने से साफ़ इनकार कर दिया था. यह पाकिस्तान के लिए असहनीय स्थिति थी. मुस्लिम बहुल बलूचिस्तान के सबसे बड़े नेता कलात के खान ने पाकिस्तान के सिद्धांत पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था. अंततः पाकिस्तान ने सैनिक कार्यवाही कर जबरन बलूचिस्तान का विलय कर लिया.</p><p><br /></p><p>१९४८ से ही कलात के खान के नेतृत्व में बलूचिस्तान की जंगे-आजादी शुरू हुई। हालाँकि बन्दूक के भय से उस वक्त इस संघर्ष को पर्याप्त जनसमर्थन नहीं मिला। लिहाजा अधिकांश अलगाववादी नेता ब्रिटेन और अमेरिका चले गए। धीरे-धीरे पंजाबी-सिन्धी पाकिस्तानी शासकों ने बलूचिस्तान की अनदेखी करनी शुरू कर दी। इन हुकुमरानों की नीतियों से शासन-प्रशासन में बलूचियों का हिस्सा कम होने लगा. बलूचिस्तान में चलने वाले सरकारी प्रोजेक्टों में भी स्थानीय नागरिकों की बजाय पंजाबी और सिंधियों को प्राथमिकता मिलने लगी. स्वतंत्रता प्रिय बलूचियों को यह बात असहनीय प्रतीत होने लगी. धीरे-धीरे वहां आजादी की जंग को समर्थन मिलने लगा. नब्बे के दशक में बलूचियों ने अपने मातृभूमि में पाकिस्तानी सरकार के कई ठिकानो पर हमला किया. इन हमलों में बड़ी संख्या में पंजाबी-सिन्धी पाकिस्तानी मारे गए. चीन की सहायता से ग्वादर में बन रहा पाकिस्तानी बंदरगाह भी इनसे बच नहीं सका. यहाँ हुए हमले कई चीनी इंजीनियर मारे गए. इसके बाद पाकिस्तानी अथारिटी ने यहाँ विद्रोह दबाने के लिए बड़े पैमाने पर सैनिक अभियान चलाया. २००६ में बलूचिस्तान की जंगे आजादी को बड़ा झटका लगा. पाकिस्तानी सैनिको की कार्यवाई में कलात के खान बुगाटी शहीद हो गए और हजारों की तादाद में बलूची मुजाहिदीनों को मौत के घाट उतर दिया गया. बड़े पैमाने पर मानवाधिकार का हनन हुआ.</p><p></p><p><br />भारत के लिए बलूचिस्तान में हो रही घटनाओं का खासा महत्व है। सबसे बड़े दुश्मन देश का सबसे बड़ा प्रान्त है. पाकिस्तान का परमाणु परीक्षण स्थल भी चगताई की पहाडियों में है. यहाँ चीन की मौजूदगी भारतीय सुरक्षा के लिए खतरनाक है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर बलूचिस्तान भारत-ईरान गैस पाइप लाइन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इसकी सरहद अफगानिस्तान को छूती है, जहाँ नाटो के सैनिक तैनात है. तालिबानी खतरा भी सर उठाये खडा है. ऐसे में भारत बलोचिस्तान में हो रही घटनाओं की अनदेखी नहीं कर सकता है. वैसे हिन्दुओं का प्रसिद्ध शक्तिस्थल 'हिंगलाज माता ' भी इसी सूबे में है. क्वेटा के इर्द-गिर्द रहने वाले थोड़े बहुत हिन्दू पाकिस्तानी सैनिको द्वारा बराबर उत्पीडित किये जाते हैं. </p><p></p><p><br />अभी हाल ही में शर्म-अल-शैख़ में मनमोहन सिंह और गिलानी ने संयुक्त बयान जारी किया है। बयान में बलूचिस्तान का भी जिक्र है. वहां हो रही घटनाओ पर खुफिया जानकारी के आदान-प्रदान पर दोनों देशों में सहमति बनी है. यह बयान स्पष्ट करता है की पाकिस्तान बलूचिस्तान की घटनाओ पर काबू करने में अकेले सक्षम नहीं है. उसे अपनी सरजमी की रक्षा के लिए भारत की सहायता चाहिए. अर्थात वह अपने अन्दुरुनी मामलों में दखल देने का मौका भारत को देना चाहता है. भारत को इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहिए. जिस तर्ज पर पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को हर अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उठाता है, ठीक उसी तर्ज पर भारत को बलूचियों की समस्या को प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उठाना चाहिए. इस घोषणा पत्र के जारी होने के बाद दुनियाभर में फैले अलगाववादी बलूची नेताओ ने जश्न मनाया. इन नेताओ ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर बलूची समस्या को उठाने का न्योता भी दिया। भारत किसी भी मुल्क के अन्दुरुनी मसले में हस्तक्षेप करने में दिलचस्पी नहीं लेता, लेकिन पाकिस्तान ने शर्म -अल-शैख़ के जरिये उसे अपने घरेलू मामलों में बोलने का अधिकार दे दिया है. यह भारतीय कूटनीति की एक बड़ी कामयाबी है.</p><p></p><p><br />बलूचिस्तानी घटनाओं में भारत का हाथ होने का पाकिस्तानी आरोप है। यह आरोप उतना ही बड़ा झूठ है जितना बड़ा सफल राष्ट्र होने का पाकिस्तानी दंभ. वहां कुछ हथियार मेड इन इंडिया जरूर मिले हैं, लेकिन पाकिस्तान यह साबित करने में विफल रहा कि इन हथियारों को भारत ने बलूची आजादी के सिपाहियों को मुहैया कराया है. वस्तुतः हथियारों कि तस्करी आम बात है. बलूची क्रांतिकारियों ने तस्करी के जरिये ही इन हथियारों कि खरीद-फरोख्त की होगी. बलूची मूवमेंट की फंडिंग में भी भारतीय हाथ साबित करना नामुमकिन हैं. क्योंकि बलूची मूवमेंट को दुनिया भर में फैले बलूचियों की सहानभूति प्राप्त है और ईरानी बलूची ही मुख्य तौर पर धन उपलब्ध कराते हैं. पाकिस्तान ने हेरात, ईरान में स्थित भारतीय व्यापारिक दूतावास पर भी बलूची मुजाहिदीनों को ट्रेनिंग देने का आरोप लगाया है लेकिन साबित कुछ भी नहीं कर सका है और न ही कभी कर पायेगा . क्योंकि भारत इस तरह की हरकतों में यकीन नहीं रखता है.</p><p></p><p><br />पाकिस्तानी हुकुमरानों की आदत सी हो गयी है कि वे अपने देश में होने वाली प्रत्येक हिंसक घटना के लिए भारतीय खुफिया एजेन्सी 'रा' को जिम्मेदार ठहरा कर अपनी जिम्मेदारियों से निजात पाने की कोशिश करते है. पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया. इसके लिए भी पाकिस्तानी हुकुमरान अपने सैनिको द्वारा बांग्लादेशियों पर किये गए अत्याचार को नहीं बल्कि भारत को जिम्मेदार मानते हैं. अब बलूचिस्तान भी बांग्लादेश की राह पर अग्रसर है. और पाकिस्तानी हुकुमरान फिर वही गलतियाँ दोहराते जा रहे हैं.</p>shantanuhttp://www.blogger.com/profile/15569001084732184655noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-44195022639060455362009-07-17T13:01:00.008+05:302009-07-17T20:24:13.375+05:30...दाल के लिए तरसे बृहस्पति देवमहंगाई से सिर्फ हम मानवों की परेशानी नहीं बढ़ी है, वरन देवता भी आजकल आधे पेट भोजन पा रहे है. अनादि काल से धरती के मनुष्य यज्ञादि पूजन द्वारा देवताओं को भोग लगाते रहें हैं. लेकिन इस <span class="">महंगाई से </span>यज्ञादि पूजन का खर्च लोगों की बजट से बाहर हो चला है. लिहाजा देवताओं को मिलने वाले आहार में कमी आ गयी है और उनकी शक्ति भी इन दिनों घटने लगी है. पर संकट में भक्त अपने इष्ट को ही याद करता है. अतः देवताओं के पास भक्तों की फरियाद पर फरियाद आ रही है. कोई जरूरी समानों के भाव कम करने की प्रार्थना करता तो कोई बढ़ती कीमतों का सामना करने के लिए इनकम बढ़ाने की याचना अपने-अपने इष्ट देव से करता. देवता इन प्रार्थना पत्रों से आजिज आ चुके थे. अंततः इस विकट समस्या के समाधान के लिए सृष्टिकर्ता ब्रह्म, पालनकर्ता विष्णु और संहारकर्ता महेश से विचार-विमर्श करने का निर्णय लिया गया. चूँकि समस्या पृथ्वी की थी अतः बैठक स्थल शिवधाम कैलाश मानसरोवर तय किया गया.<br /><br /><span class=""></span><br /><br /><span class=""></span><br /><br />नियत समय पर सभी देवता कैलाश मानसरोवर पहुंचे। मंच पर त्रिदेव विराजमान, बाकि देवता नीचे अपना कद के अनुसार उचित आसन पर बैठे थे. त्रिदेवों ने एक स्वर से पूछा 'हे इन्द्र! आखिर ऐसी कौन सी विपदा आन पड़ी है जिसका समाधान तुम्हारे पास नहीं है.' इन्द्र ने कहा 'हे त्रिदेवों! कुछ हजार साल पहले पृथ्वी पर महंगाई रुपी दुष्ट शक्ति ने पृथ्वी पर हमला कर मेरे भक्तों का बुरा हाल किया था. मेरे भक्तों की परेशानी इस कदर बढ़ गयी थी की वे अपने इष्ट की पूजन सामग्री तक नहीं खरीद पा रहे थे. हवन आदि आहारों की अनुपस्थिति में मेरी शक्ति धीरे-धीरे समाप्त होती गयी और मै अपने भक्तों की रक्षा न कर सका.' इन्द्र की आवाज में रुदन स्पष्ट झलक रहा था. इन्द्र ने करुण स्वर से कहा, 'हे महादेवों! मेरी इस गति से भक्तों का विश्वास मुझसे उठ गया और आज मेरा एक भी भक्त इस मृत्युलोक पर नहीं है. आज फिर उसी महंगाई रुपी दुष्ट शक्ति ने इस लोक के भ्रष्ट नेताओं, नकारा नौकरशाहों और रिटेल व्यापारिक घरानों के साथ मिलकर शेष बचे देवताओं को नष्ट करने का षडयंत्र रचा है.' स्थिति काफी गंभीर हो चुकी है.'<br /><br /><span class=""></span><br /><br /><span class=""></span><br /><br />तभी बृहस्पति देव उठ खड़े हुए। उन्होंने याचना भरे स्वरों में कहा 'हे महादेवों! देवराज उचित ही कह रहें हैं. हवन आहुति, फल-फूल से ही हम देवों को शक्ति मिलती है. तीन साल पहले स्थिति इतनी विकट न थी. भक्तगण मेरी कृपा प्राप्त करने के लिए मुझे पीली दाल, गुण सहित कई वस्तुओं की भोग लगाते थे. आजकल थोडा बहुत गुण तो मिल जाता, लेकिन दाल के दर्शन अति दुर्लभ हो गया है. मैंने अपने स्तर से पता लगवाया. पता चला दाल ८० रूपये किलों और गुण भी ४८ रूपए किलों बिक रहा है. जबकि तीन साल पहले ये वस्तुएं ४० रुपये और ३० रुपये किलों मिलती थी. मेरे भक्तों की थाली में भी अब दाल बड़ी मुश्किल से दिखती है. जब से चढावे में कमी आयी है तब से मुझे भी अपनी शक्ति जाती हुयी महसूस हो रही है.' यह कहते कहते वो अचेत से हो गए. तभी सभी देवताओं ने एक स्वर से त्राहिमाम-त्राहिमाम का स्वर गुंजित किया और बड़ी आस भरी निगाहों से त्रिदेवों की और देखने लगे.<br /><br /><span class=""></span><br /><br /><span class=""></span><br /><br />त्रिदेव अभी विचार करते, उससे पहले ही पुराणिक पत्रकार नारद आ गए। बड़ी संख्या में देवताओं को देख उन्होंने नारायण की और देखा और इसका औचित्य पूछा. प्रिय भक्त को देख प्रसन्न विष्णु भगवान् ने नारद को वस्तु स्थिति बताई. सहसा नारद चौंक पड़े. उन्होंने बताया की अभी वे भारत वर्ष से ही आ रहें हैं. उन्हें तो ऐसी कोई दुर्दशा नहीं दिखी. जगह-जगह मॉल बन रहे हैं, पंच सितारा होटलों में दावतों का दौर जारी है. राजनेता और नौकरशाह अपनी कुर्सी बचा लेने के बाद विदेश यात्राओं में मग्न है. मंत्रालयों के एसी चेम्बरों में तरह-तरह की विकास योजनायें बन रही हैं. वहां तो सर्वत्र भोग-विलास का वातावरण हैं.<br /><br /><span class=""></span><br /><br />देवर्षि की विचित्र किन्तु आंशिक सत्य बातें सुनकर देवगुरु खड़े हुए। उन्होंने कहा 'हे नारद आप बिलकुल ठीक कह रहें हैं. लेकिन आप स्वयं ही बताएं इन <span class="">भोगी-</span>विलासी लोगों में से कितने लोग मानवता की राह पर चल रहे हैं? इनमें से कितने लोग सच्चे मन से हमारी पूजा करते हैं? तभी अचानक जासूस देव अपने हाथ में रिपोर्टों की एक फाइल लेकर खड़े हुए। नारद को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा " हे देवर्षि! आप स्वयं महाज्ञानी हैं. लेकिन लगता है की आप भी धरती पर सिर्फ विशेष लोगों की खबर लेने के लिए ही जाते हैं. हमारे पास गुप्त सूचना है की अधिकांश शासनाधिकारी शैतान की पूजा करते हैं. लोगों का खून चूसकर अपनी जैबे भरते हैं. और स्वर्ग की तर्ज पर प्रत्येक स्थान पर मॉल स्वर्ग बनाने की ख्वाहिश रखते हैं. आम जनता, जो हमारी पूजा सच्चे मन से करती है उसे महंगाई से मारने की साजिश इन्ही के सहयोग से रची गयी है, जिससे देवताओं को उनका यज्ञ भाग न मिले और वे कमजोर हो सके." जासूस देव की तथ्यपरक बातों से देवर्षि निरुत्तर हो गए.<br /><br /><span class=""></span><br /><p>तभी एक देवता ने जासूस देव से कहा " हे देव! मैंने तो सुना है की भारत देश का राजा बड़ा ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति है? उसने इस स्थिति को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया?" जासूस देव ने कहा "हे देव! सुना तो मैंने भी ऐसा ही था। लेकिन नयी जानकारी के अनुसार चुनाव <span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial; font-size: 14px; line-height: 21px; white-space: pre-wrap; ">जीतने </span> के बाद बनी नयी मंत्रिपरिषद उसने लोकसभा से जिन ६४ सांसदों को मंत्री बनाया है उनकी कुल घोषित संपत्ति ही ५०० करोड़ से अधिक है. अतः उसे इस महंगाई का एहसास कैसे हो सकता है." </p><p></p><p>अभी विमर्श अपने उच्चतम सोपान पर पहुँचने ही वाला था की अचानक नंदी (भगवान शिव की सवारी) दौड़ते हुए आये. उन्होंने सूचना दी की ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय के ग्लेसियर पिघलने लगे हैं. अब कैलाश पर रहना सुरक्षित नहीं है. शीघ्र ही निवास स्थान बदलना होगा. यह सुनते ही भगवान् शिव क्रोध से भर गए. उन्होंने राक्षसों और अपकारी शक्तियों के इस कृत्य पर भीषण गर्जना की. सभी देवता बड़ी आस भरी निगाहों से संहारकर्ता भगवान् शिव की और देखने लगे कि कब वे इन दुष्ट अपकारी शक्तियों और उनके सहयोगी भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों और स्वार्थी उद्योगपतियों का संहार कर उन्हें एवं उनके आम नागरिक रुपी भक्तों को राहत दिलाएंगे? </p>shantanuhttp://www.blogger.com/profile/15569001084732184655noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-74257938378956732262009-07-15T14:12:00.001+05:302009-07-15T14:20:17.116+05:30खबर का असर, इन्द्र ने कराई बारिश"जी हाँ आज की सबसे बड़ी खबर एक्स वाय जेड न्यूज़ के खुलासे के बाद देवलोक में मचा हड़कंप। आनन-फानन में देवराज इन्द्र ने मीटिंग बुलाई है । इस मीटिंग में बादल को बर्खास्त करने की एक्सक्लूसिव जानकारी भी सिर्फ हमारे चैनल पर ही है." चीखते-चीखते एंकर ने कहा सबसे पहले उसी के चैनल ने दिखाया था कि देवलोक की कार्यप्रणाली में खोट है. किस तरह से बादल जैसे छोटे देवता भी इन्द्र की अनदेखी कर देते हैं. उसने दर्शकों से रात आठ बजे प्राइम टाइम स्पेशल ' स्वर्गलोक में मचा हड़कंप' देखने का आदेशनुमा आग्रह किया।<br /><br /><br /><br /><br />इस सनसनीखेज चैनल को देख रहे अधिकांश दर्शक मन ही मन सोच रहे थे कितना जबरदस्त चैनल है यह. इसकी खबर से तो देवलोक में भी हड़कंप मच जाता. और इसके पास स्वर्ग लोक की बैठक में क्या होने वाला है इसकी भी खबर पहले से ही है. यह सोचते-सो़चते दर्शक रात होने का इन्तजार करने लगे. देवलोक में फ़ैली अफरा-तफरी की खबर से विज्ञापन जगत की गतिविधियाँ तेज हो गयी. बड़े-बड़े ब्रांड अपने विज्ञापन दिखने के लिए एक्स वाय जेड न्यूज़ के फोन घुमाने लगे और प्राइम टाइम स्पेशल के लिए अपनी-अपनी बुकिंग करनी शुरू दी।<br /><br /><br /><br />दूसरी और देवलोक में नृत्य और सोमरस का दौर चल रहा था। अप्सराएँ मधुर संगीत पर थिरक रही थी। नृत्य समाप्त होने पर सभी देवता एक स्वर से वाह-वाह कर ही रहे थे की नारायण-नारायण की ध्वनि से स्वर्ग लोक गूँज उठा।इस नारायण-नारायण जाप से देवेन्द्र सिहर उठे। यह देवर्षि नारद की आवाज थी. अक्सर नारद किसी दैत्य के हमले की ही सूचना लाते थे. इसलिए देवता आपस में खुसर-फुसर करने लगे।<br /><br /><br />देवर्षि का अभिवादन कर इन्द्र ने उनके आगमन का उद्देश्य पूछा। वैदिक पत्रकार नारद ने बोला " हे देवेन्द्र मुझे सूचना मिली है की बादल को बर्खास्त करने के लिए आप एक बैठक आयोजित करने जा रहे हैं. क्या आपने इसकी सूचना मुझे देना जरूरी नहीं समझा. और सबसे बड़ी बात देवेन्द्र! मेरे रहते हुए. यह बात मृत्युलोक के पत्रकारों तक कैसे पहुँच गयी." यह कहते-कहते नारद की आवाज तल्ख़ हो गयी. नारद के प्रश्नों से हतप्रभ देवेन्द्र ने कहा "यह आप क्या कह रहे हैं देवर्षि! मैंने तो ऐसी कोई मीटिंग नहीं बुलाई है. बादल तो मेरा परम सहयोगी है. मै भला उसे नौकरी से क्यों निकालूँगा. और आपको ऐसी सूचना किसने दे दी।"<br /><br /><br />नारद ने चकित होते हुए कहा" देवेन्द्र मेरे पास यह सूचना सीधे मृत्युलोक से आयी है। वहां के एक खबरियां चैनल ने इसकी एक्सक्लूसिव जानकारी होने का दावा किया है." फिर थोडी देर सोच कर नारद ने कहा आप उचित ही कह रहें हैं देवराज. भला मेरे सिवाय स्वर्ग लोक की कवरेज करने की योग्यता और साहस किसमे हैं! मैंने आजतक किसी अन्य रिपोर्टर को यहाँ नहीं देखा. लेकिन यह अफवाह पृथ्वी पर फैली कैसे? इससे तो पृथ्वी पर देवलोक की छवि खराब हो रही है? रिपोर्टरों ने स्वर्ग की एक्सक्लूसिव खबर की अफवाह फैला कर स्वयं को देवताओ की श्रेणी में रखने का प्रयत्न किया है? यदि ऐसा ही चलता रहा देवेन्द्र! तो वो दिन दूर नहीं जब मनुष्य देवताओ के बदले इन रिपोर्टरों की पूजा करने लगेगा।"<br /><br /><br />नारद के प्रवचनों से सभी देवता व्यथित हो उठे। मंथन का दौर शुरू हो चला. देवतागण अपने-अपने सुझाव देने लगे. देवताओ में इन्द्र की निगाहों में अपने नंबर बढ़ाने के लिए होड़ मच गयी. कोई कहता देवेन्द्र को एक्स वाय जेड चैनल के हेड क्वार्टर पर वज्रास्त्र चला देना चाहिए तो कोई कहता इसके प्रोडयूसर्स और चैनल हेड को स्वर्ग के कारागाह में भेज देना चाहिए. इस चिल्पोह के बीच सहसा देवगुरु बृहस्पति खड़े हुए. उन्होंने देवन्द्र से कहा की पृथ्वी लोक में जब किसी नेता-अभिनेता पर ऐसे आरोप लगते हैं तो वह प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर इसका खंडन करता है. अतएव बादल को भी एक प्रेस कांफ्रेंस बुलानी चाहिए." देवगुरु के प्रस्ताव देते ही सभी की निगाहें बादल को ढूँढने लगी, लेकिन. इन्द्र न वह सभा से नदारद था. इन्द्र ने अपने खुफिया प्रमुख से बादल की स्टेटस पूछी. जासूस देव ने कहा" देवराज बादल मृत्युलोक में पहुँच चुके हैं और वे किसी भी पल बरस सकते हैं. हालाँकि इस बार उन्हें पहुँचने में २५ दिन की देरी हुई है." देवराज ने जासूस देव से बादलों की देरी की वजह पूछी. जासूस देव ने कहा" देवराज हर वर्ष होने वाला वार्षिक नृत्य-उत्सव इस बार अपने नियत समय से २५ दिन पहले शुरू हुआ है. बादल बरसों से इस उत्सव का आनंद उठाने से वंचित रहा था. उत्सव का लुत्फ़ उठाने के बाद ही वह यहाँ से विदा हुआ।"<br /><br /><br />देवता फिर चिंता में पड़ गए। अंततः इन्द्र कि सरपरस्ती वाली त्रि-सदस्यीय कमेटी का गठन हुआ जिसमे नारद और बृहस्पति भी शामिल थे. इन्द्र ने वज्रास्त्र चलाने का सुझाव दिया. इस पर नारद ने समझाया की इससे पूरी मीडिया आपके पीछे पद जायेगी और आपकी बड़ी बदनामी होगी. मीडिया इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करार देगा और जनता का विश्वास देवताओ से उठ जायेगा. काफी विचार-विमर्श के बाद कमेटी ने सर्वसम्मति से चैनल के खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज करने का फैसला किया. लेकिन कोर्ट के उबाऊ पचडे में पड़ने से पहले बातचीत के जरिये हल निकालने कि कोशिश करना भी तय हुआ।<br /><br /><br />उधर इन सब बातो से बेखबर बादल बड़ी तेजी से बरसने के इरादे से दिल्ली और मुंबई के आसमान पर छा गया। प्रोग्राम के ठीक पहले इन दोनों महानगरों में जम कर बारिश हो गयी. इसका असर एक्स वाय जेड के न्यूज़ रूम में देखने को मिला. शाम आठ बजे कि विशेष पेशकश स्वर्ग में मचा हड़कंप की पैकेजिंग पूरी हो चुकी थी. इसके सभी स्क्रिप्ट राइटर कैफेटेरिया में बैठकर आराम फरमा रहे थे. तभी बॉस का फरमान मिला 'सभी गधे तुंरत न्यूज़ रूम में हाजिर हों.' बॉस ने तुंरत नए सिरे से स्क्रिप्ट लिखने को कहा और पैकज का एंगल बताया 'एक्स वाय जेड की खबर का असर इन्द्र ने घुटने टेके. जमकर बरसे बादल, लोगों को मिली राहत.' एक नौसिखिये स्क्रिप्ट राइटर ने आपत्ति की कि इसमें इन्द्र के घुटने टेकने वाली कौन सी बात है सर. यह तो प्राकृतिक प्रक्रिया है. आखिर कब तक इस तरह की आधारहीन बकचोदी करते रहेंगे.? बॉस ने माँ-बहन कि गाली देते हुए कहा 'जितना कहा जाये उतना ही करों. कौन से इन्द्र देव इसका खंडन करने आ रहे है. और सुनो उस काल-कपाल टाईप के बाबा को भी बुला लेना समझे. वह पैकेज की जरूरत के हिसाब से ही बकता है।'<br /><br /><br />रात आठ बजे दर्शकों ने एक्स वाय जेड न्यूज़ लगाया। विशेष पेशकश शुरू हो चूकी थी. चिल्ला-चिल्ला कर बोलने में माहिर एंकर और तिलकधारी काले कपडे पहने हुए एक बाबा जी दिखाई दे रहे थे. बाबा के गले में कई तरह कि मालाये थी. एंकर ने बाबा से सवाल पूछा 'बाबा आखिर आज बादल बरसे कैसे?' बाबा ने कहा 'उन्हें दिव्य शक्तियों ने बताया है की आपके चैनल की खबर से देवलोक में विद्रोह की स्थिति आ गयी है. भारी दबाव में इन्द्र ने बारिश कराया है।'<br /><br /><br />बकवास सवालों का दौर यू ही चलता रहा। दर्शक एक-टक से चैनल देख रहे थे. तभी न्यूज़ रूम में फोन घनघनाया. फोन करने वाले व्यक्ति ने स्वयं को देवराज इन्द्र बताया. पहले तो चैनल हेड थोडा घबराया पर जल्द ही संभलकर बोला 'हाँ देवन्द्र फरमाईये! मै आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?' इन्द्र ने कहा 'यह क्या बकवास लगा रखा है? तुम्हारी खबर का आधार क्या है? स्वर्ग मै किसी तरह का हड़कंप नहीं मचा है. सभी देवता आपका काम ठीक कर रहे हैं और किसी को बर्खास्त नहीं किया जा रहा है. तुम अपनी खबर का खंडन करों नहीं तो मै तुम्हारे खिलाफ मानहानि का दावा करूँगा.' चैनलों मै इस तरह की धमकी अक्सर आती रही है. अतः चैनल हेड पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ा. उसने उल्टा इन्द्र को ही धमका दिया तुझे केस करना है तो कर ले. मेरे पास वकीलों की फौज है. फिर इन्द्र ने लालच देना शुरू किया ' खबर का खंडन कर ले. मृत्यु के बाद तो तुझे स्वर्ग ही आना हैं न. मै तेरा यहाँ बहुत अच्छा ख्याल रखूँगा.' चैनल हेड ने कहा ' कौरे आश्वासन क्यों देते हो इन्द्र. व्यक्ति को उसके कर्म के हिसाब से ही स्वर्ग या नरक मिलता है. मैंने बतौर चैनल हेड इतने पाप किये हैं की मुझे स्वर्ग कभी मिल ही नहीं सकता. और अब फोन रखों, नहीं तो उस भ्रष्ट संचार मंत्री से मेरी गहरी दोस्ती है, उससे कह कर तुम्हारा फोन कटवा दूंगा. हाँ अगर कोई उर्वशी, रम्भा और मेनका तीनों मुझे सौपों तो मै विचार करूँगा.' बेचारे देवेन्द्र अपनी प्रेमिकाओं को छोड़ने के लिए कैसे तैयार होते? सौदा न पटा. देवताओं का राजा सर्वशक्तिमान इन्द्र भारत भूमि की इस नवीन शक्ति के आगे नतमस्तक हो गया. उसे सूझ नहीं रहा था कि अपना सम्मान बचाने के लिए वो करे तो क्या करे?shantanuhttp://www.blogger.com/profile/15569001084732184655noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-37755134921218798372009-01-21T16:21:00.002+05:302009-01-21T21:14:51.211+05:30लगाम के डर से बिदका घोड़ा<p>स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है एक आजाद मीडिया। पर भारत में इस आजादी की सीमा क्या है ? यह स्पष्ट नहीं है। शायद इसी का फायदा उठाकर इस स्वघोषित (संविधान में सिर्फ़ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को ही स्तम्भ कहा गया है) चौथे स्तम्भ ने समाज के प्रत्येक वर्ग में अपनी अपनी दखल दी। लोकतंत्र के अन्य सभी स्तंभों की सीमा और अधिकार की व्याख्या संविधान में मिलती है लेकिन मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ही एक सब-सेक्शन (१९-A) में समेट दिया गया है। प्रेस की गतिविधियों की निगरानी के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्थाएं हैं। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने विजुअल मीडिया की सीमा स्पष्ट करने के लिए कानून का मसौदा तेयार किया है। इससे मीडिया जगत की भौहें तन गयी हैं और इस काननों को रुकवाने के लिए हर स्तरसे प्रयास शुरू कर दिया गया है। </p><p><span class=""></span> </p><p>आखिर ऐसी स्थिति आयी क्यों ? इस पर विचार करने की जरूरत है। मीडिया और केन्द्र सरकार के बीच ताजातरीन विवाद मसौदे के उस हिस्से के मुद्दे पर है जिसमें किसी दंगे अथवा किसी ऐसी कार्रवाई जहाँ पुलिस या सेना तैनात हो के लाइव फुटेज पर पाबन्दी का प्रावधान है. सरकार का पक्ष है की लाइव कवरेज से आतंकी अथवा वे शरारती समूह जो तनाव भड़काना चाहते है उनको लाभ मिलता है. मीडिया सरकार के इस कदम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार मान रही है. मीडिया के सरपरस्तों को इस बात पर भी आपत्ति है की कोई एसडीएम रैंक का अधिकारी मीडिया-कर्मियो को ऐसी घटना के कवरेज से रोक सकता है जो उसकी निगाह में तनाव अथवा हिंसा भड़काने वाला हो. इस पहलू पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की जरूरत है. डीएम अथवा एसडीम अधिकारी बनने के लिए एक बेहद प्रतिस्पर्धी काम्पीटीसन को पास करना होता है. इस्सके बाद एक उच्च स्तरीय ट्रेनिंग भी हासिल करनी होती है जो प्रशासन के सभी पहलूओ में उन्हें दक्ष बनाने में सहायक होता है. दूसरी और वे पत्रकार होते हैं जिनकी नियुक्ति कैसे हुयी है? उनकी ट्रेनिंग कैसी है? क्या वे पत्रकारिता के एथिक्स जानते भी है? इसके बारे में पब्लिक को न के बराबर जानकारी होती है. शायद मीडिया की नियुक्तियों में वो पारदर्शिता नही है जो एक नौकरशाह की नियुक्ति में होती है। </p><p><span class=""></span> </p><p>आजाद भारत में स्थितियां बदल गयी हैं. गुलामी के वक्त अधिकांश अखबरों में राष्ट्रवादी व्यक्ति काबिज थे और उद्देश्य राष्ट्रसेवा था. देश की प्रगति ने मीडिया को शीघ्र ही एक उद्योग में तब्दील कर दिया. किसी भी अन्य उद्योग की तरह इस उद्योग से जुड़े पूंजीपतियों का भी मैन टारगेट पैसा कमाना है. आज की तारिख में देश के कई प्रतिष्टित व्यवसायिक घराने अपना चैनल या अखबार खोलने की जुगत में भिडे हैं. यह उन्हें न केवल पैसा देता है बल्कि बिज़नस इंटेरेस्ट को को साधने का अवसर भी देता है. फिलहाल देश में कई ऐसे तथाकथित मीडिया घराने है जिनका मुख्य बिज़नस चैनल या न्यूज़-पेपर न होकर कुछ और ही है ( मसलन चीनी उद्योग, दिस्तिल्लेरी, फैशन इंडस्ट्री सहित बहुत कुछ ) ऐसे मीडिया हाउस आजादी का ग़लत लाभ उठाकर अपने अन्य उद्योगे के मुफीद पॉलिसी बनवाते हैं. मीडिया का काम तथ्यों के साथ बिना किसी परिवर्तन के सूचना पब्लिक तक पहुंचाना होता है. लेकिन आज की मीडिया अपना व्यू पब्लिक पर थोपती है. पब्लिक वैसा ही सोचती है जैसी सूचना उसके सामने रखी जाती है। </p><p><span class=""></span> </p><p>मीडिया बहुत से लोगों को पब्लिक फिगर बताकर उनके व्यक्तिगत जीवन में जीभरकर हस्तछेप करती है. चैनल ने तो पत्रकारिता की नई विधा का ही इजाद कर दिया है जो जनहित या जनरुचि से कहीं आगे बढ़कर लोगों को डराने में यकीन रखती है. इस सनसनीखेज पत्रकारिता का नमूना हम कई बार देख चुके हैं. इसका उल्लेखनीय उदाहरण हम कमोबेश रोज देखतें है. हाल ही में मुंबई एटीएस ने उत्तर प्रदेश के एक हिंदूवादी नेता को गिरफ्तार किया. इस घटना के पहले मीडिया के पास सिर्फ़ इतनी ही सूचना थी कि यूपी के एक हिंदूवादी नेता को मुंबई एटीएस गिरफ्तार करने वाली है. सनसनीखेज बनने के लिए देश के स्वघोषित पहरेदारों ने अफवाह फैलाई कि संसद आदित्यनाथ को गिरफ्तार करेगी मुंबई एटीएस. बाद की घटना सभी को मालूम है. और जिस तरह से मीडिया के एक बहुत बड़े सेक्शन ने आरुषि हत्याकांड की रिपोर्टिंग की उससे बड़ी गैर जिम्मेदारी और क्या हो सकती है. और टीआरपी रेस में आगे निकलने के लिए जिस तरह से नाग-नागिन. आवश्यकता से अधिक ज्योतिष और पुनर्जन्म सहित कई अन्धविश्वासी कार्यक्रम दिखा रहे हैं. इस टीआरपी की रेस में चैनलों के रहनुमाओं को किसानो की समस्या नजर नही आती है बल्कि राजू श्रीवास्तव की कमेडी से पैसे बनाने की फिक्र है.<br /><span class=""></span></p><p><span class=""></span> </p><p>भाई-भतीजावाद सहित अन्य वे सभी बुराइयाँ का मीडिया में उतना ही मजबूत वजूद है जितना की मीडिया दूसरे सेक्टरों में दिखाती आयी है. शायद ये ख़ुद का स्टिंग ओपरेशन करने और उसे दिखाने की हिम्मत नही रखते हैं.<br /><span class=""></span></p><p>लेकिन इस अपरिपक्व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ अच्छे पहलू भी है. जनहित से जुड़े बहुत से मुद्दे पर बेहतरीन रिपोर्टिंग से पब्लिक को फायदा भी मिला है. प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खाते में कैश फॉर वोट, ओपरेशन दुर्योधन, बंगारू लक्ष्मन पर्दाफाश, बोफोर्स कांड का पर्दाफाश सहित मानवीय आपदा के वक्त के गयी रिपोर्टिंग है जिनपर मीडिया कर्मी गर्व कर सकते हैं. इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, जनसत्ता, सीएनएन- आईबीएन और टाईम्स नॉव एइसे ग्रुप हैं जिन्होंने कई अवसरों पर आला दर्जे की रिपोर्टिंग की है और पत्रकारिता के आदर्शों को और ऊँचा किया है.मीडिया सेल्फ रेगुलेशन की बात कई सालों से बात करती आयी है. मुंबई कांड पर हुई आलोचनाओ से नींद से जागी ब्रॉड-कास्टर असोसिअशन ने जो कोड ऑफ़ कंडक्ट घोषित किए हैं उनमे से अधिकांश सरकारी मसौदे में है. स्वस्थ पत्रकारिता करने वालों को यह सरकारी प्रस्ताव अपने अधिकारों पर कुठाराघात लग रहा है, जो की एक सीमा तक ही जायज प्रतीत होता है. मीडिया के भेष में छिपे धन्नासेठों की कारगुजारियों को रोकने के लिए सरकार का प्रस्ताव सराहनीय है. मीडिया को अपनी बुरईयों को दूर करने के लिए अपनी कार्यप्रणाली में और नियुक्तियों में पारदर्शिता लाने की जरूरत है ताकि मीडिया आम पब्लिक की निगाहों में अपने चौथे स्तम्भ के रुतबे को बरकरार रख सके.<br /></p><p>धैर्य पूर्वक पढने के लिए शुक्रिया. </p><p>-शांतनु</p>shantanuhttp://www.blogger.com/profile/15569001084732184655noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-65818959644463811472008-08-26T15:47:00.003+05:302008-08-26T16:34:56.428+05:30पीएम इन वेटिंग डॉ. मनमोहन सिंह की चुनौतियाँउन सभी लोगों के लिए जो उम्मीद कर रहे हैं की बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह अन्तिम कार्यकाल होगा, उन्हें स्पष्ट संदेश दे दिया गया है. कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने गत सप्ताह अधिकारिक तौर पर घोषणा की थी की वे अगले साल भी १५ अगस्त को लाल किले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही झंडा फहराते देखना चाहती हैं. उनके इस बयान से आगामी लोकसभा चुनाव में यूपीए के प्रधानमंत्री पद के संभावित प्रत्याशियों के मुद्दे पर चल रही अटकलबाजी पर विराम लग गया है.चुनाव से पहले इस मुद्दे से जुड़े भ्रम के बादलो को साफ़ कर सोनिया ने यूपीए और कांग्रेस की स्थिति बेहतर की है. विशेषकर जब से 'गाँधी परिवार' के चापलूसों ने यह कहना शुरू कर दिया है की राहुल गाँधी को अभी प्रधानमंत्री बनने के लिए अभी काफी कुछ सीखना है. डॉ. मनमोहन सिंह के लिए सोनिया का विश्वास उनका आत्मविश्वास बढाने वाला है. यह उन्हें राष्ट्र हित से जुड़े मुद्दों पर और अधिक सक्रिय करेगा.यूपीए के कई नेताओ ने सोनिया को मनमोहन सिंह का नाम आगे करने के लिए प्रोत्साहित किया. कृषि मंत्री शरद पवार ने हाल ही में बयान दिया था की उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव के लिए यूपीए की ओर से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री का उमीदवार घोषित करने पर किसी तरह की आपत्ति नही है.यूपीए के दो बड़े नेताओ द्वारा उनके नाम की घोषणा करने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती इनके विस्वास पर खरे उतरने की है, जिसे उनसे बेहतर और कोई नही समझ सकता है. फिलहाल जिन समस्याओ से सरकार जूझ रही है उनके त्वरित समाधान की जिम्मेदारी उन्ही पर है. इन मुद्दों का शांतिपूर्ण हल यूपीए को आगामी चुनाव से जुड़ी तैयारियों में सहायता पहुँचायेगा. हालाँकि अगला लोकसभा चुनाव जीतने के लिए मनमोहन सिंह को अभी काफ़ी लंबा सफर तय करना है. पिछले चार साल के कार्यकाल के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार के खाते में कई बेमिशाल उपलब्धियां हैं, लेकिन कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में वे कई तरह की समस्यओं से घिरे हुए हैं. जम्मू और कश्मीर की हालियाँ घटनाएँ उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. राज्य की लगातार बिगड़ती स्थिति के लिए मनमोहन सिंह और उनका प्रधानमंत्री कार्यालय काफी हद तक जिम्मेदार है. गवर्नर ले.ज. एस. के सिन्हा के जगजाहिर दक्षिणपंथी सोच के बावजूद उन पर विस्वास बनाये रखना लोगों की समझ से परे है. उनके इस नजरिये पर कांग्रेसी नेता भी आश्चर्य जाता चुकें हैं. जब राज्य में चल रहे तनाव की नींव राज्यपाल रख रहे थे तब भी पीएमओ और गृह मंत्रालय स्थिति की गंभीरता का अनुमान नही लगा सका. राज्य के सांप्रदायिक आग में जलने के बावजूद प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक देरी से बुलाना समझ से परे है. राज्य की स्थिति दिन-प्रतिदिन सरकार की हाथ से निकलती जा रही है और भौचक्की सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. जम्मू और कश्मीर की लगातार बिगड़ती स्थिति यूपीए सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है, लाल किले से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने थोड़ा बहुत जरूर कहा. हालाँकि उनके शब्दों में वह विश्वास नही दिखा जो लोगों को यकीन दिला सके कि स्थिति सरकार के नियंत्रण में है.कैबिनेट और कांग्रेस पार्टी में मनमोहन सिंह के समर्थक राज्य की बिगड़ती स्थिति के प्रति लंबे समय तक बरती गई उदासीनता की वजह प्रधानमंत्री की न्यूक्लियर डील पर अत्यधिक ध्यान देना मानते हैं.<br />जम्मू कश्मीर कि मौजूदा स्थिति कि ही तरह दिन-ब-दिन बढती महंगाई भी यूपीए के लिए राजनितिक तौर पर नुकसानदायक है. किसी भी सरकार के शासनकाल में मुद्रास्फीति कि डर में होने वाली वृद्धि उसकी अयोग्यता और निक्कमेपन को दर्शाती है. और जब प्रधानमंत्री ही अर्थशात्री हो तो स्थिति और भी शर्मनाक हो जाती है. मनमोहन सिंह ने महंगाई बढ़ने के लिए विदेशी कारकों को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में ताल कि कीमते गिरने के बावजूद उनकी सरकार महंगाई रोकने में नाकाम रही है. यह मनमोहन सरकार कि कर्यषमता पर प्रश्नचिंह लगाता है.ये दो समस्याएँ अकेले ही लोकसभा चुनाव में यूपीए के जनादेश पाने के अभियान को झटका देने में सक्षम हैं. कैश फॉर वोट कांड भी यूपीए कि छवि को नुक्सान पहुँचा सकता है. इस कांड की जाँच करने वाली संसदीय समिति का फ़ैसला मनमोहन सिंह के आसमान छूते आत्मविश्वास को नुकसान भी पहुँचा सकता है, इसके अलावा विश्वास मत हासिल करने के लिए की गई सौदेबाजी भी अब सामने आने लगी है. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष खुलेआम कहते फिर रहें हैं की उन्हें यूपीए ने समर्थन के बदले झारखण्ड में मुख्यमंत्री की कुर्सी देने का वायदा किया गया था. वायदा पूरा न होने पर सोरेन ने निर्दलीय मधि कोडा सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इन दोनों प्रकरणों की गूँज भी आगामी चुनाव के दौरान निश्चित तौर पर रहेगी.निःसंदेह डॉ. मनमोहन सिंह और उनके सहयोगी चुनावी अभियान को प्रभावित करने वाले इन सभी मुद्दों पर निगाह रखे होंगे. प्रधानमंत्री की तरकश में सिर्फ़ न्यूक्लियर डील ही एक मात्र ऐसा बाण है जो उन्हें चुनाव में रहत पहुँचा सकता है. इस डील को एनएसजी और अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी अगले महीने तक मिल सकती है. यूपीए की रणनीति इस उपलब्धि को बेमिसाल बताकर भुनाने की हो सकती है. साथ ही यूपीए के मीडिया मैनेजर्स इसका उपयोग जनता के मानस पटल से मौजूदा सभी समस्यओं को मिटने के लिए भी तैयार होंगे. यह काफी हद तक अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी एनडीए की इंडिया शाइनिंग अभियान जैसी ही है, और सभी को पता है की इस आत्मघाती अभियान ने वाजपेयी और एनडीए का क्या हश्र किया था. मनमोहन सिंह को इससे सबक सीखना चाहिए और अगले आठ महीनों में इस गलती को दोहराने की बजाये जमीनी समस्याओ का समाधान करना चाहिए. कोई भी उनकी सरकार की वास्तविक उपलब्धि को उनसे छीन नही सकता है. एक न्यूक्लियर डील के बूते ही चुनाव जीतने का निष्कर्ष निकलना उचित नही होगा. न्यूक्लियर डील के बावजूद यूपीए के पीएम इन वेटिंग मनमोहन सिंह के लिए चुनावी दंगल-२००९ मुश्किलों भरा होगा.<br />(Translated from english by Shantanu Srivastavagirish nikamhttp://www.blogger.com/profile/09414569063488283282noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-88474287466321913982008-07-14T10:48:00.004+05:302008-07-14T10:55:47.056+05:30दक्षिण दृष्टि<strong>हड़बड़ी और गड़बड़ी यानी येदियुरप्पा</strong><br /><span class=""></span><br />पिछले कई वर्षों में दक्षिण भारत की राजनीति को नजदीक से देखने के बाद कर्नाटक में बी एस येदियुरप्पा की अगुवाई वाली महज छह सप्ताह पुरानी भारतीय जनता पार्टी की सरकार की तेजी हैरान कर देती है कर्नाटक या यूं कहें कि दक्षिण भारत में किसी भी राज्य सरकार ने इतने कम समय में इतनी "शानदार" उपलब्धियां हासिल नही की जितना की येदियुरप्पा सरकार कर चुकी है.हड़बड़ी में काम करने के लिए कुख्यात येदियुरप्पा ने काफी कम समय में ही कई काम "सिद्ध" कर दिखाए हैं. उन्होंने अपने सिद्धि की शुरुआत उत्तर कर्नाटक के हावेरी में उर्वरक की मांग कर रहे किसानों पर गोलीबारी की घटना से की जिसमें दो किसान मारे गए। निश्चित तौर पर उन्हें इस घटना में किसी की साजिश नजर आई और उन्होंने उर्वरक की कमी के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करना जारी रखा। हालांकि उर्वरक की कमी के दावे को उनके ही कई अधिकारी गलत बता रहे हैं। ऐसा लगता है इतना ही काफी नहीं था, उनके वफादार मंत्रियों में से एक जिनके पास राज्य के मंदिरों की देखरेख का जिम्मा है, उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मंदिरों को मुख्यमंत्री के नाम से रोज सुबह "होम" कराने का आदेश जारी कर दिया। खुद को मंत्री बनाए जाने पर कुछ ज्यादा ही अनुग्रहित महसूस कर रहे अपने इस वफादार मंत्री के आदेश को येदियुरप्पा को बिना समय गंवाए वापस लेना पड़ा साथ ही उन्होंने उस मंत्री को कड़ी फटकार भी लगाई। इसके बाद मुख्यमंत्री ने एक और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अब तक 120 आईएएस अधिकारियों का भी तबादला कर चुके हैं। इससे उन पर यह आरोप भी लगने लगे हैं कि उन्होंने यह कदम जातिगत भावनाओं से प्रेरित होकर उठाया है।और भी ज्यादा स्तब्ध करने वाली बात यह सामने आ रही है कि मुख्यमंत्री जल्द ही मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं। खुद येदियुरप्पा द्वारा हवा दिए गए इन कयासों के बीच राज्य सरकार के मंत्रिमंडल के सदस्य खासे तनाव में हैं। मंत्रियों के बीच इस तरह का तनाव किसी भी सरकार के कार्यकाल के पहले ही महीने में अब तक नहीं देखा गया है। गृह मंत्री वी एस आचार्य समेत कई मंत्रियों को अपना विभाग खोने का डर सताने लगा है। ऐसा समझा जा रहा है कि बदलाव की यह संभावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राज्य इकाई की ओर से बढ़ते दबाव के कारण है। संघ मंत्रिमंडल के मौजूदा स्वरूप से खुश नहीं है और वह इसमें बदलाव चाहता है। येदियुरप्पा हाल ही में बदलाव के बारे में चर्चा करने के लिए संघ मुख्यालय भी पहुंच गए थे।<br /><br />ऐसा लगता है कि इतना ही काफ़ी नहीं था। येदियुरप्पा ने खुद को सही मायनों में हड़बडि़या साबित करते हुए अपने कैबिनेट के धनाढ्यों रेड्डी बंधुओं (बेल्लीरी के खदान मालिक) और उनके नजदीकी चेले मंत्री श्रीरामुलु को विधायकों के जोड़-तोड़ का अभियान सौंप दिया है। यह अभियान सफल भी होता दिख रहा है। कांग्रेस के सांसद आर एल जलप्पा के बेटे समेत दो कांग्रेस विधायक और दो जनता दल (एस) विधायक अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो चुके हैं।<br />रेड्डी बंधु इन विधायकों को बेल्लारी ले गए थे। जहां डील फाइनल हो जाने के बाद वे उन्हें हेलीकाप्टर से बेंगलूर लेकर आए और फिर विधानसभा स्पीकर के सामने मार्च करवाकर इस्तीफा दिलवाया। सौदा यह हुआ कि ये विधायक भाजपा के टिकट पर फिर से उपचुनाव लड़ेंगे जिसका पूरा खर्च रेड्डी बंधु उठाएंगे। 224 सदस्यों वाली विधानसभा में अभी भाजपा के 110 सदस्य हैं जो साधारण बहुमत से तीन कम है। विधायकों का यह जोड़-तोड़ उन चार निर्दलीय विधायकों से छुटकारा पाने के लिए किया है जिन्हें मजबूरी में मंत्री पद सौंपा गया है। भाजपा अभी भी इन निर्दलीय विधायकों को भरोसेमंद नहीं मानती है। रेड्डी बंधुओं को कांग्रेस और जनता दल (एस) से और भी विधायकों को तोड़कर लाने को कहा गया है। इन दोनों शिकार ग्रस्त पार्टियों के नेता मन ही मन कुढ़ने के अलावा भाजपा को लोगों के संभावित रोष के बारे में सिर्फ़ चेतावनी ही दे पा रहे हैं. इन सब के बीच येदियुरप्पा वादों की बरसात करते हुए अपनी हडबडिया शैली में अपनी सरकार चलाते जा रहे है.<br /><strong><span class=""></span></strong><br /><strong>आंध्र में चीरू फैक्टर से हड़कंप</strong><br /><br />इस बीच आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी अपने ही पार्टी सदस्यों द्वारा उन पर भ्रष्ट होने के आरोपों को सफलता से निबटाने के बाद अब ख़ुद को एक नई चुनौती के लिए तैयार कर रहे हैं. यह चुनौती तेलगू सिनेमा के सुपर स्टार चिरंजीवी की तरफ से आ रही है। राज्य में बड़ी तादाद में मौजूद अपने प्रशंसकों के बीच चीरू नाम से मशहूर इस मेगा स्टार ने राजनीति के अखाड़े में कूदने का फैसला कर लिया है। आने वाले कुछ सप्ताहों में वह अपनी नई पार्टी का ऐलान कर देंगे। पिछले साढे़ चार साल के अपने कार्यकाल के दौरान कई चुनौतियों से गुजर चुके वाईएसआर के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती अपने नेताओं को कांग्रेस में बनाए रखना है जो चिरंजीवी की तरफ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं। वास्तव में यह समस्या सिर्फ वाईएसआर की ही नहीं है। तेलगुदेशम प्रमुख चंद्रबाबू नायडू से लेकर भाजपा और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेताओं को भी चीरू फैक्टर से निबटने में खासी परेशानी हो रही है क्योंकि उनके नेता और कार्यकर्ता नई पार्टी में शामिल होने की योजना बना रहे हैं।<br /><br />नायडू को तो बड़ा झटका लग भी चुका है। तेदपा में नंबर दो की हैसियत रखने वाले देवेंद्र गौड़ नायडू पर यह आरोप लगाकर पार्टी छोड़ चुके हैं कि वह अलग तेलंगाना राज्य के मामले पर गंभीर नहीं हैं और लगातार इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। वैसे तो गौड़ टीआरएस सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव की तरह करिश्माई नेता नहीं हैं लेकिन चिरंजीवी के साथ हाथ मिलाकर वह एक बड़ी शक्ति जरूर बन सकते हैं।<br />आंध्र प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक हालात इतने उलझे हुए हैं किअभी यह कहना बेहद मुश्किल है कि आगामी चुनावों में कौन किसे नुकसान पहुंचाएगा। चिरंजीवी की आने वाली पार्टी को मिलाकर राज्य की चार पार्टियों के अलावा वामदल और भाजपा भी उलझन बढ़ाने का काम कर रहे हैं जिससे चुनावी पंडितों को आने वाले समीकरण को सुलझाने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। हालांकि वाईएसआर को उम्मीद है कि उनके सरकार की उपलब्धियां जिसे उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं आगामी चुनावों में कांग्रेस की नैया पार लगा देगी। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं और चुनाव की घड़ी नजदीक आ रही है आंध्र प्रदेश की राजनीतिक स्थिति रोचक होती जा रही है। अब चिरंजीवी अगले एनटीआर साबित होंगे या उनके दावे महज शोशेबाजी निकलेगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।<br /><br /><strong>महत्व खोते करुणानिधि</strong><br /><br />तमिलनाडु में भी राजनीतिक तस्वीर दिनोंदिन धुंधली होती जा रही है। डीएमके प्रमुख एम्. करुणानिधि के ऊपर अपने ही गठबंधन की ओर से दबाव पड़ रहा है। डा. पी. रामदौस की वन्नियार पार्टी पीएमके पहले ही गठबंधन से अलग हो चुकी है। हालांकि करुणानिधि पीएमके को केंद्र की यूपीए सरकार से अलग कर पाने में सफल नहीं हो सके जहां पी रामदौस के बेटे अंबुमणि रामदौस अभी भी केंद्रीय मंत्री हैं। डीएमके प्रमुख अपने दोनों बेटों स्टालिन और अलगीरी के साथ अपनी बंटी हुई प्रतिबद्धता के कारण भी लगातार समस्या में हैं। करुणानिधि संप्रग के प्रमुख नेता के तौर पर भी अपना महत्व खोते जा रहे हैं। पहले उन्होंने दावा किया था कि वह वामदलों और कांग्रेस के बीच समझौता करवा देंगे लेकिन जब इन दोनों के बीच हालिया टकराव हुआ तो करुणानिधि कुछ नहीं कर सके। उन्होंने यह भी कहा था रिश्ते सुधारने के प्रयास में वह दिल्ली भी जाएंगे लेकिन वह दिल्ली भी नहीं पहुंचे। वह वामदलों द्वारा संप्रग सरकार से समर्थन वापसी के घटनाक्रम को चेन्नई में बैठकर चुपचाप देखते रहे। इन सभी घटनाओं की गूंज एआईएडीएमके की नेता जयललिता के कानों में मिश्री घोल रही होगी जो दिनोंदिन भाजपा के करीब जाती दिख रही हैं।<br />(Courtesy Dainik Bhaskar)girish nikamhttp://www.blogger.com/profile/09414569063488283282noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-35550975149980551812008-06-30T22:49:00.000+05:302008-06-30T22:52:26.237+05:30अरुणाचल: यहां हर वोट बिकाऊ है!हाल ही में संपन्न कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान इस बात की खुली चर्चा हुई कि वहां जीत हासिल करने की ललक में किस तरह पैसे लुटाए गए। इस चुनाव से पूर्व मतदाताओं को खरीदने के लिए कभी इस तरह मनी पावर का इस्तेमाल नहीं हुआ था। उन जगहों पर तो स्थिति और भी विकराल थी जहां खनन और रियल स्टेट माफिया हावी थी। यहां तक इमानदार चुनावों के दिनों में जिन्हें असली धन कुबेर समझा जाता था वे भी पैसा लुटाने वाली नई ताकतों के सामने पानी भरते नजर आए। चुनाव प्रचार के समय मौजूदा हालात से परेशान राज्य के एक पूर्व जाने माने सांसद ने कहा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन अब कभी सीधे चुनाव में नहीं उतरूंगा।<br /><br /><br />लेकिन एक राज्य ऐसा हैं जिससे चुनावों में पैसे लुटाने के मामले में कर्नाटक सहित देश के कई अन्य राज्य पीछे रह जाएंगे। वह राज्य जिसने चुपके से चुनावों में पैसे के इस्तेमाल के बेहिसाब बढ़ते चलन के मामले में अन्य राज्यों को पछाड़ दिया वह है भारत का उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश। इस राज्य में जिसे आम भारतीय देश के राज्य और उसकी राजधानियों की सूची को तलाशते वक्त ही याद रखते हैं हाल ही में पंचायत चुनाव हुए हैं और कुछ उप चुनाव अभी भी चल रहे हैं।<br /><br /><br />प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस राज्य में जहां विदेशी तो क्या देशी पर्यटक भी विरले ही मिलते हैं आज की तारीख में चुनाव किसी योग्य उम्मीदवार के लिए दु:स्वप्न से कम नहीं रह गया है। यह स्थिति ग्राम पंचायत से लेकर संसदीय चुनावों तक सब पर लागू होती है। अरुणाचल की राजधानी ईटानगर की एक रसूख वाली महिला कहती हैं, "मैं पिछली बार विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन तभी मैंने महसूस किया कि मैं किसी राष्ट्रीय पार्टी का टिकट पाने की पहली बाधा भी नहीं पार सकती हूं। मुझे इसके लिए बहुत बड़ी रकम अदा करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकती थी। इसलिए मैंने चुनाव लड़ने के अपने इस ख्वाब को भूल जाना ही बेहतर समझा।"<br /><br />यहां तक हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में भी वही उम्मीदवार खड़ा हो सका जो बड़ी रकम खर्च करने में समर्थ था। राज्य में समाज के अलग-अलग तबकों के साथ बातचीत के आधार पर आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां की राजनीति किस कदर पैसों के ही इर्द-गिर्द घूमती है। यहां तक पंचायत चुनावों में भी जहां 400-500 से ज्यादा मतदाता नहीं है वही उम्मीदवार जीतने का ख्वाब देख सकता है जो कम से कम चार-पांच लाख रुपये खर्च करे। इसी तरह जिला परिषद के चुनाव में जिस उम्मीदवार के पास 35-40 लाख रुपये खर्च करने की कुव्वत नहीं है उसके जीत की कोई गुंजाइश नहीं बचती। यह अलग बात है कि इतने रुपये खर्च करने के बाद भी जीत की कोई गारंटी नहीं होती।<br /><br /><br />ईटानगर से सड़क के रास्ते से छह घंटे की दूरी पर स्थित एक जिला मुख्यालय जीरो के एक शिक्षक बताते हैं, "मैंने जिला परिषद चुनाव में जिस निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन किया था उसने भी 30 से 35 लाख रुपये के बीच खर्च किए लेकिन वह जीत नहीं सका क्योंकि कांग्रेस के उम्मीदवार ने उससे भी ज्यादा खर्च किए।" अरुणाचल के एक जिला परिषद में औसतन 2800 मतदाता ही हैं और ऐसे में एक उम्मीदवार का इतनी बड़ी राशि खर्च करना यहां की राजनीति में पैसों के खेल का सहज खुलासा करता है।<br />रोचक तथ्य यह है कि अरुणाचल में हर स्तर के चुनाव में उम्मीदवार को तकरीबन हर मतदाता को वोट के लिए पैसे देने पड़ते हैं। राज्य के एक खूबसूरत पर्वतीय गांव पोतिन के भाजपा समर्थक हिगियो तालो ने कहा, "चुनाव के दौरान ज्यादातर मतदाता उम्मीदवार से पैसे मिलने की उम्मीद रखते हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी वे उम्मीदवार से पैसे मांगते भी हैं। अगर हम उन्हें पैसे नहीं देंगे तो वह वोट नहीं देंगे और अगर दिया भी तो जानबूझ कर अपना वोट अमान्य करा देंगे।" तालो उम्मीदवारों और उसके समर्थकों की परेशानियों की और भी कई दास्तान सुनाते हैं। वह कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम किसी वोटर को हजार-दो हजार रुपये देकर आश्वस्त हो सकते हैं वह हमें ही वोट देगा। हम यह भी ध्यान रखना होता है कि उस वोटर को कोई अन्य उम्मीदवार हमसे ज्यादा पैसे न दे दे। लेकिन हमारी लाख कोशिशों के बावजूद भी ऐसा हो जाता है। अगर हमने किसी वोटर को दो हजार रुपये दिए हैं तो विपक्षी पार्टी उसे तीन हजार रुपये दे देगी। मैं ऐसे वाकयों के बारे में भी जानता हूं जब किसी प्रभावशाली मतदाता को बीस से तीस हजार रुपये भी दिए गए हैं। ऐसे में वोटर उसी को वोट देता है जो उसे सबसे ज्यादा पैसे दे।" इसका मतलब हुआ कि राज्य के 16 जिलों के 161 जिला परिषदों में सिर्फ विजयी उम्मीदवार द्वारा करीब 60 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं।<br /><br />अरुणाचल में चुनाव के दौरान वोटरों को नगद भुगतान करना अब कोई रहस्य नहीं है और कोई भी इस सच से इनकार नहीं करता है। राज्य के एक प्रभावशाली नेता जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है स्वीकारोक्ति के साथ कहते हैं, "लोकसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को 35 से 45 करोड़ रुपये की विशाल राशि खर्च करनी पड़ती है और इसमें से ज्यादातर हिस्सा मतदाताओं को नगद भुगतान करने में जाता है।" वह कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को तीन से पांच करोड़ रुपये तक ढीले करने पड़ते हैं। कुछ उम्मीदवार तो दस करोड़ रुपये तक खर्च करते हैं।<br /><br />अब इतनी बड़ी राशि मतदाताओं की जेब में जा रही तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि वहां के उम्मीदवारों की क्रय क्षमता निश्चित तौर पर बेहद प्रभावशाली है। लेकिन सवाल उठता है कि उम्मीदवारों के पास चुनाव में खर्च करने के लिए इतने पैसे आते कहां से हैं। विश्वविद्यालय के एक शिक्षक के अनुसार ये पैसे केंद्रीय सरकार की कृपा से आते हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा राज्य को बड़ी राशि आवंटित होती है जिसका बड़ा हिस्सा नेताओं की जेब भारी करता है और ये नेता इसका इस्तेमाल चुनाव में मतदाताओं को खरीदने में लगाते हैं। हालांकि राज्य के एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ जो चुनावों में पैसे के इस्तेमाल को स्वीकार करते हैं का कहना है कि केंद्र से मिलने वाली राशि का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा नौकरशाह और ठेकेदार ले उड़ते हैं और 10 से 15 फीसदी रकम ही नेताओं के पास आ पाती है। उनके अनुसार जो भी रकम नेताओं के पास जाती है वह उसका इस्तेमाल चुनावों में करते हैं और नतीजतन राज्य के विकास का काम पीछे हो जाता है।<br /><br />राजीव गांधी विश्वविद्यालय के एक लेक्चरर मोजी रीबा कहते हैं कि अक्सर राज्य में उसी पार्टी की सरकार बनती है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज हो। उनकी बात बिल्कुल सही है क्योंकि जब दिल्ली में राजग की सरकार आई तो अरुणाचल में राज कर रही कांग्रेस सरकार के सभी सदस्य भाजपा में शामिल हो गए और इसी तरह 2007 में राज्य की लगभग सभी भाजपा विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। विश्वविद्यालय के एक अन्य शिक्षाविद कहते हैं, "यह सब और कुछ नहीं पैसे की ताकत का खेल है। केवल नेता ही आम जनता भी इस खेल में शामिल हैं और उन्हें ऐसा करने में कुछ भी गलत नहीं लगता।" कर्नाटक के मतदाता इस बात पर जरूर अपनी पीठ थपथपा सकते हैं वे अभी भी अरुणाचलियों के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं।girish nikamhttp://www.blogger.com/profile/09414569063488283282noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-46294470141918547582008-06-24T14:55:00.000+05:302008-06-24T14:57:24.378+05:30मिस्टर प्राइमिनिस्टर बड़ा मुद्दा क्या है, करार या महंगाई?पिछले साल एक समाचार पत्र द्वारा आयोजित किए गए सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी संरक्षक और मुख्य समर्थक कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कहा था कि संप्रग सरकार किसी एक मामले को लेकर चलने वाली सरकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे अमेरिका के साथ परमाणु करार को किसी तर्कसंगत अंत तक न पहुंचा पाने के गम के साथ भी रहने को तैयार हैं। तब यह महसूस किया गया करार को आईएईए में ले जाने को लेकर चली उबाऊ व अंतहीन बहस और इस पर बनी संप्रग-वाम समन्वय समिति मजह दिखावे भर के लिए है।<br />हालांकि मनमोहन सिंह निश्चित तौर पर ऐसी सोच नहीं रखते थे। अब ऐसी स्थिति आ गई है कि संप्रग सरकार का भविष्य अनिश्चितता के तराजू में झूल रहा है और इसे बचाने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। यह सोचने वाली बात है कि ऐसी स्थिति आई क्यों? क्या प्रधानमंत्री को यह अचानक महसूस होने लगा कि वह अपने कार्यकाल को यादगार बनाने का एक अहम और आखिरी मौका चूक रहे हैं, क्या हमारे प्रधानमंत्री करार न हो पाने के कारण अगले महीने होने वाले जी आठ सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के सामने शर्मिंदा होने से बचना चाहते हैं? या क्या वह इस बहाने महंगाई की बढ़ती मार को थामने में सरकार की असफलता को ढांकना चाहते हैं?<br />इन सवालों जवाब ढूंढने की कोशिश करने से पहले उस वजह को जानना जरूरी है जो प्रधानमंत्री और वामदलों के बीच ताजा तकरार की वजह है। यह याद रखने वाली बात है कि भारत-अमेरिका रणनीतिक समझौता संप्रग के घटक दलों और वामदलों के बीच सरकार बनाने से पहले वर्ष 2004 की गर्मियों में हुए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था। संयोगवश यह 2004 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के घोषणापत्र का भी हिस्सा नहीं था। यह तय है कि अगर कांग्रेस उस वक्त इसे न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल करने पर जोर देती तो उसे इतनी आसानी से सत्ता नसीब नहीं होने वाली थी। इसलिए जुलाई, 2005 में अपने अमेरिकी दौरे के वक्त जब प्रधानमंत्री ने इस साझेदारी को देश के सामने रखा तो वामदल क्रोधित हो गए।<br />यह कोई गुप्त रहस्य नहीं है कि वामदल पूंजीवादी और साम्राज्यवादी माने जाने वाले अमेरिका के साथ वैचारिक मतभेद रखते हैं। साथ ही जार्ज बुश का अमेरिकी राष्ट्रपति होना उनके लिए आग में घी डालने का काम करता है। बुश वामपंथियों के बीच सबसे ज्यादा नफरत किए जाने वाले शख्स हैं। वामपंथी ही क्या दुनिया के अन्य राजनीतिक मतों वाले लोगों में बुश कोई लोकप्रिय व्यक्ति नहीं हैं।<br /><br />तब वामपंथियों को यह भरोसा देकर शांत किया गया कि संप्रग सरकार अमेरिका के साथ समझौते को लेकर जो भी कदम उठाएगी उसमें पूरी पारदर्शिता बरती जाएगी और इसके लिए उन्हें भी विश्वास में लिया जाएगा। वामपंथियों को यह भी कहा गया था कि उनकी सहमति के बाद ही सरकार इस मामले में आगे बढ़ेगी। अमेरिकियों को इस करार के लिए राजी कर 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद से अंतरराष्ट्रीय परमाणु बिरादरी से अलग-थलग पड़े भारत को मुख्य धारा में लौटाने के लिए काफी प्रशंसा बटोर चुके मनमोहन सिंह ने उस वक्त कई कदम उठाए। भारतीय परमाणु संयंत्रों को नागरिक और रक्षा इस्तेमाल वाले संयंत्रों के रूप में विभाजित करना उनके इन्हीं कदमों में से एक था। उनके ऐसे कदमों की काफी सराहना हुई लेकिन वामदलों के साथ-साथ वैज्ञानिकों और नाभकीय प्रौद्योगविदों के बीच सरकार के कदमों के विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।<br />प्रधानमंत्री हालांकि उन्हें यह कहकर आंशिक रूप से समझा पाने में सफल रहे कि सरकार किसी भी सूरत में भारतीय हितों के साथ समझौता नहीं करेगी। याद कीजिए जब यह सब घटित हो रहा था तब भी वामपंथी लगातार कह रहे थे कि करार न्यूनतम साझा कार्यक्रम की परिधि से बाहर की बात है। साथ ही उन्हें अमेरिकी मंशा पर भी गहरा शक था। तब तक मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी करार के विरोध में उतर चुकी थी। हालांकि पार्टी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकती थी उनके विरोध का आधार भी वही है जो वामपंथियों का है। सरकार का यह दावा कि करार से भारत की परमाणु ऊर्जा की क्षमता बढ़ेगी कमजोर होने लगी। भाजपा के अरुण सौरी से लेकर रणनीतिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चलाने और कई नाभिकीय वैज्ञानिकों द्वारा ऊर्जा जरूरतों और नाभिकीय ऊर्जा की मौजूदा स्थिति पर वृहद शोध के आधार पर लिखे गए कई आलेखों ने सरकार के दावे को कड़ी चुनौती दी। इन लोगों ने अमेरिका की मंशा पर भी सवाल उठाए साथ इस बात पर भी आपत्ति जताई कि करार पर अपारदर्शी तरीके से आगे बढ़ा जा रहा है। करार पर कई सवाल और संदेह उठे जो आज भी अनुत्तरित है।<br />इसके बावजूद प्रधानमंत्री अमेरिका उन्मुखी मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रभाव में यह कहते रहे कि करार भारत की भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के लिए बेहद जरूरी है और इसे टाला नहीं जा सकता है। करार से जुड़े सेफगार्ड को अंतिम स्वरूप देने के लिए आईएईए जाने की बात पर भी वामदल अनिच्छा के साथ कुछ शर्र्तो पर सहमत हुए। इन्हीं में एक मुख्य शर्त यह थी कि जब तक करार पर आमसहमति नहीं बन जाती है सरकार आगे नहीं बढ़ेगी।<br /><br />लेकिन अब हम देख रहे हैं कि वामपंथियों, भाजपा नेताओं और वैज्ञानिक समुदाय के कई लोगों की असहमति के बावजूद प्रधानमंत्री ने करार पर आगे बढ़ने का फैसला कर खुद के साथ-साथ अपनी सरकार के भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। इस कदम से वामदलों का प्रधानमंत्री पर जो थोड़ा-बहुत विश्वास था वह भी खत्म हो गया है। प्रधानमंत्री और वामपंथियों के बीच विश्वास की यही कमी दोनों धड़ों के बीच मौजूदा तकरार की सबसे बड़ी वजह है और इससे कांग्रेस और संप्रग की स्थिति कमजोर हुई ही है साथ ही इनकी भविष्य की संभावनाओं को भी गहरा धक्का लगा है।<br />आखिर प्रधानमंत्री के इस कदम के पीछे क्या वजह हो सकती है। वैसे तो यह कहना उचित नहीं होगा कि वह व्यक्तिगत ख्याति के लिए ऐसा कर रहे हैं लेकिन उनके इस कदम से उस तर्क को बल मिलता है कि करार के दो मुख्य कलाकार मनमोहन सिंह और जार्ज डब्ल्यू बुश इसके माध्यम से अपने-अपने कार्यकाल को यादगार बनाना चाहते हैं। जबकि बुश पहले से ही एक महत्वहीन राष्ट्रपति बन चुके हैं, अपने हालिया कदमों से मनमोहन ने भी यह सुनिश्चित कर दिया कि वह भी एक महत्वहीन प्रधानमंत्री हैं जिनके लिए संप्रग के दोबारा सत्ता में आने के बावजूद फिर प्रधानमंत्री बन पाना बेहद मुश्किल है।<br />ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्यों दो महान लोकतांत्रिक देश एक ऐसे करार पर आगे बढ़े जिसे भारतीय संसद में तो बहुमत प्राप्त नहीं ही है साथ अमेरिका में भी इस मामले पर बहुमत संदेहास्पद है। क्या हम इस मसले पर दस महीने और इंतजार नहीं सकते जब दोनों ही देशों में नई सरकारें होंगी और वे इस पर बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में होंगी। और क्या मनमोहन अपने उस बयान पर कायम नहीं रह सकते जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार किसी एक मुद्दे के लिए ही नहीं है? फिलहाल महंगाई नाम का बड़ा मुद्दा या यूं कहें चुनौती उनके सामने मुंह बाए खड़ी है। अगर वह इस पर काबू पाने में सफल रहते हैं तो उनका कार्यकाल ज्यादा प्रशंसनीय कहलाएगा और उन्हें एक यादगार प्रधानमंत्री के तौर पर और भी ज्यादा संख्या में लोग याद रखेंगे।girish nikamhttp://www.blogger.com/profile/09414569063488283282noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-55790294074278721022008-06-18T22:16:00.004+05:302008-06-18T22:30:25.685+05:30क्या भाजपा के रुख से अंदरूनी लोकतंत्र को बढ़ावा मिलेगा?<em>गिरीश निकम का यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा हुआ है, जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमित के साथ यहां प्रकाशित कर रहा हूं। <a href="http://indiasreport.com/node/48" target="_blank">इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें</a></em><br /><br /><b>गिरीश निकम की कलम से</b><br /><br />भारतीय जनता पार्टी द्वारा बिहार में उपजी अंदरूनी समस्या के निदान के लिए उठाया गया कदम दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने के संदर्भ को लेकर हाल फिलहाल की सबसे उल्लेखनीय प्रगति है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार में पार्टी विधायक दल के नेता और उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का भविष्य तय करने के लिए राज्य के अपने विधायकों से गुप्त मतदान करने को कहा। भाजपा द्वारा अपने एक बेहद महत्वपूर्ण नेता का भाग्य निर्धारण करने के लिए इस तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का चुनाव करना निसंदेह सराहनीय कदम है।<br /><br />हालांकि भाजपा के अंदर सुशील मोदी का दर्जा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में कम है लेकिन इसके बावजूद वह नरेंद्र मोदी की ही तरह एक दिग्गज ओबीसी नेता हैं और बिहार की राजनीति के दिग्गजों लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार के समकालीन भी हैं। इसके साथ ही सुशील मोदी राज्य में पार्टी का सबसे ज्यादा जाना-पहचाना चेहरा भी हैं। हालांकि पिछले दिनों नीतीश मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद से वह अपनी पार्टी के कुछ सवर्ण विधायकों के साथ टकराव की स्थिति में आ गए। इन विधायकों के अनुसार मंत्रीमंडल से उनकी छुट्टी के पीछे कहीं न कहीं सुशील मोदी का ही हाथ है और इसी के फलस्वरूप वे मोदी को उप मुख्यमंत्री पद से उतरवाने की जुगत में भिड़ गए।<br /><br />शुरुआत में इस मामले पर टालमटोल का रुख अपनाने के बाद भाजपा आलाकमान ने राज्य के अपने सभी विधायकों को दिल्ली तलब किया। जब केंद्रीय नेतृत्व को यह आभास हुआ कि ये विधायक सीधे तौर पर अपने मन की बात नहीं कह पाएंगे तो उसने गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाई। हालांकि इस गुप्त मतदान के नतीजे को सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन यह खबर बाहर आई कि मोदी को अब भी अपने विधायकों का मामूली ही सही लेकिन बहुमत प्राप्त है। इस गुप्त मतदान के नतीजे के आधार पर मोदी को अपना कार्यभार संभाले रखने के लिए हरी झंडी मिल गई और आलाकमान को उम्मीद है कि राज्य में बगावत की आवाज अब शांत हो जाएगी। वैसे इसके अलावा एक और बड़ा कारण है जिस वजह से भाजपा मोदी का पल्लू नहीं छोड़ सकती है। मोदी बिहार के बनिया मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और बिहार में यही एकमात्र ऐसा मतदाता वर्ग है जो पिछले एक दशक से भी अधिक समय से पूरी तरह भाजपा के साथ है। इस वजह भाजपा मोदी को दरकिनार कर इतना बड़ा जनाधार खोने की जोखिम नहीं उठा सकती। अब भाजपा आलाकमान द्वारा राज्य विधायकों के बीच कराया गया यह युद्धविराम कब तक जारी रहता है यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इन सब के बावजूद अनजाने में ही सही भाजपा ने अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है। इस बारे में अन्य दल बातें तो जरूर करते हैं लेकिन शायद ही कभी अमल में लाते हैं।<br /><br />याद कीजिए कुछ ही हफ्ते पहले कांग्रेस के उत्तराधिकारी राहुल गांधी ने अंदरूनी राजनीति में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर जोर देकर अपनी राय रखी थी। वास्तव में वह पार्टी मीटिंगों में भी यह बात उठाते रहे हैं। कांग्रेस पिछली बार पार्टी में लोकतंत्र का साक्षी तब बना था जब सोनिया गांधी और जीतेंद्र प्रसाद के बीच पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ था और इसमें उस वक्त नौसिखिया मानी जानी वाली सोनिया ने शानदार जीत दर्ज की थी। लेकिन इसके बाद से अब तक किसी ने उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखाई और यहां तक कि राज्यों में कांग्रेस मुख्यमंत्री के चुनाव से लेकर विधायक दलों के नेता और अध्यक्ष तक का चुनाव उन्हीं के इशारे से होता है जिसे तथाकथित आम राय के नाम से जाना जाता है।<br /><br />यहां तक कि पार्टी के अंदर लोकतंत्र के मामले पर भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं रहा है। पार्टी के सबसे ताजा-तरीन मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा भी यह दावा नहीं कर सकते कि वह पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हैं। वास्तव में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को भी बिल्कुल एकतरफा तरीके से प्रधानमंत्री पद का अपना अगला उम्मीदवार घोषित कर दिया। भाजपा के इस फैसले के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के अन्य दलों के सामने भी आडवाणी को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा। इसी तरह पार्टी ने मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी बिना विधायकों की राय जाने गद्दी से उतार दिया और एक बाद फिर बिना विधायकों की रायशुमारी के शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया।<br /><br />कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में इस प्रकार की घटनाओं का अंतहीन सिलसिला रहा है। आज की तारीख में सिर्फ लेफ्ट पार्टियों खासकर सीपीआई (एम) के भीतर ही लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और फलफूल भी रही है। सीपीएम के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनाने के मुद्दे को लेकर पार्टी ने जो रुख अपनाया कोई अन्य राजनीतिक पार्टी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकती है। 1996 में जब बसु अपने राजनैतिक कैरियर के चरम पर थे तब पोलित ब्यूरो के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके दोनों ही नेता पार्टी पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति को मनाने में असफल रहे और नतीजतन बसु प्रधानमंत्री नहीं बन सके। यह पार्टी के अंदर मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही नतीजा था।<br /><br />तब पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति दोनों ने फैसला लिया था कि यह इस बात के लिए उपयुक्त समय और माहौल नहीं है कि संयुक्त मोर्चा द्वारा बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए। पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं बसु और सुरजीत के पास बहुमत के निर्णय को स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था और उन्होंने बिना किसी शोरशराबे के इसे स्वीकार भी किया।<br /><br />यह ऐसी घटना है जिसके बारे में भाजपा और कांग्रेस के संदर्भ में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जहां तक व्यक्ति केंद्रित पार्टियों मसलन समाजवादी पार्टी, तेलगु देशम, द्रमुक व अन्नाद्रमुक आदि का सवाल है तो वहां ऐसा होना असंभव से कम नहीं होगा।<br /><br />इसलिए भाजपा द्वारा बिहार में सुशील कुमार मोदी के भविष्य के लिए गुप्त मतदान करवाना खासा रोचक है। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा ने यह उपाय सिर्फ एक बार के लिए आजमाया है या वह इस लोकतांत्रिक तरीके का अनुसरण अहम पदों पर काबिज होने वाले व्यक्तियों के चुनाव के लिए आगे भी करेगी। यहां तक भाजपा आलाकमान भी इसे अपने लिए बाध्यकारी नहीं बनाना चाहता। इसके पीछे के कारण स्पष्ट हैं। ऐसा नहीं है कि पार्टी हर राज्य में इस तरीके को अपना पाएगी क्योंकि सब जगह की क्षेत्रीय स्थितियां और परिस्थितियां भिन्न होगी।<br /><br />हालांकि दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली के अभाव के पीछे की मूल वजह बिल्कुल अलग है। मुख्य धारा की किसी भी पार्टी ने अपने कैडरों और नेताओं में लोकतांत्रिक समझ को जगाने की कोशिश नहीं की है। इसके बावजूद यह तथ्य चौंकाने और रोमांचित करने वाला है कि यह यही नेता और कैडर जो अपनी पार्टी के संरक्षण वादी संस्कृति के अधीन होते हैं और जिनके अंदर अंदरूनी लोकतंत्र की जागृति नहीं होती है चुनावों में अपनी जीत और हार को बड़े ही विनम्र तरीके से स्वीकार करते हैं। लोकसभा, विधानसभा या पंचायत चुनावों में इन नेताओं की हार के पीछे और भी तमाम तरह के कारण मौजूद होते हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह कभी देखने में नहीं आया कि इन पराजित नेताओं द्वारा विजयी पक्ष को सत्ता हस्तांतरण में कोई खास दिक्कत आती हो। तब क्या वह है कि पार्टियां अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने में हिचकिचाहट दिखाती है? अब भाजपा ने रास्ता दिखाया है तो हम उम्मीद कर सकते हैं मुख्य धारा की सभी पार्टियां अंदरूनी लोकतंत्र को मजबूत बनाने की ओर कदम उठाएगी।बिक्रम प्रताप सिंहhttp://www.blogger.com/profile/04887757195597338956noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-993494151662152759.post-64739650985804690192008-06-17T20:15:00.002+05:302008-06-17T20:18:15.594+05:30बेईमानी आधी-आधीकाफी दिनों के बाद अपने गृह प्रदेश जाने का अवसर मिला तो मन उत्साह से भर उठा। दिल में उमंगें और तरह-तरह के भाव लिए घर की तरफ चल पड़ा। रास्ते भर अपने प्रदेश व अपने लोगों के बारे में ही सोचता रहा। सोचता रहा कि काफी कुछ बदला-बदला सा नजर आएगा। लेकिन मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरा सामना ऐसे वाकये से होगा, जिसे मैं लंबे समय तक नहीं भूल सकूंगा।<br /><span class=""></span><br />स्टेशन पर उतरते ही जल्दी-जल्दी सामान समेटा और बाहर आकर बस का इंतजार करने लगा। बस में बैठते ही कंडक्टर की आवाज आई, कोई भी भारी सामान ऐसे नहीं ले जा सकता, उसका किराया अलग से देना होगा। सभी सवारियां अपने-अपने सामान की तरफ देखने लगीं। तभी एक युवक ढेर सारा बिजली और लकड़ी का सामान लेकर आया और बड़े ही अधिकार भाव से दोनों तरफ की सीटों के बीच खाली जगह पर रख दिया और निश्चिंत भाव से बैठ गया। उसे यह भी सोचने की फुर्सत नहीं थी कि उसके सामान से यात्रियों को कितनी परेशानी हो रही थी।<br /><span class=""></span><br />थोड़ी ही देर में कंडक्टर महोदय आए और पान की पीक को खिड़की के बाहर बीच सड़क पर थूक कर युवक से मुखातिब होते हुए उसका गंतव्य स्थल पूछा। युवक के बताने पर उन्होंने कहा कि इसका एक सवारी के बराबर किराया लगेगा। इतना कहकर कंडक्टर ने नकद की आस में युवक की तरफ हाथ बढ़ाया। लेकिन युवक ने साफ मना करते हुए कहा, ठीक है पूरा टिकट दे दीजिए। इतना सुनते ही कंडक्टर महोदय के चेहरे पर ऐसे भाव आए मानो युवक ने उनके हक पर डाका डालने का प्रयास किया हो। जल्दी से मुंह घुमाया और पूरे पान को गेट से बाहर फेंक कर बोले, अरे भाई, इसका क्या फायदा। ऐसे में तो सारा पैसा सरकारी खाते में चला जाएगा।<br /><span class=""></span><br />इतना सुनकर मैं भी अपनी सीट के पीछे चल रहे इस संवाद से खुद को अलग न रख सका। घूम कर देखा तो कंडक्टर युवक की सीट के पास खड़ा होकर ऐसे मुस्कुरा रहा था जैसे उसने अब तक की सबसे बड़ी नीतिगत बात कह दी हो। युवक ने सिर झटक कर कहा, ठीक है कितना देना होगा। कंडक्टर बोला, पूरे किराये का तीन हिस्सा। एक हिस्से की छूट दे दूंगा। युवक ने दृढ़ता से कहा- नहीं,बेईमानी आधी-आधी। आधा तुम रखो आधा मैं। काफी देर तक दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे। बात बनती न देख आखिरकार कंडक्टर को झुकने में ही अपना फायदा नजर आया और नकद रुपये जेब में रख अपनी सीट पर जा बैठा। उसके हाव-भाव से ऐसे लग रहा था मानो कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। इस बीच बस में बैठे बुद्धिजीवी नजर आने वाले लोग सिर्फ मुस्कुरा भर दिए थे।संतराम यादवhttp://www.blogger.com/profile/10989095817786039835noreply@blogger.com6