Monday, June 30, 2008

अरुणाचल: यहां हर वोट बिकाऊ है!

हाल ही में संपन्न कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान इस बात की खुली चर्चा हुई कि वहां जीत हासिल करने की ललक में किस तरह पैसे लुटाए गए। इस चुनाव से पूर्व मतदाताओं को खरीदने के लिए कभी इस तरह मनी पावर का इस्तेमाल नहीं हुआ था। उन जगहों पर तो स्थिति और भी विकराल थी जहां खनन और रियल स्टेट माफिया हावी थी। यहां तक इमानदार चुनावों के दिनों में जिन्हें असली धन कुबेर समझा जाता था वे भी पैसा लुटाने वाली नई ताकतों के सामने पानी भरते नजर आए। चुनाव प्रचार के समय मौजूदा हालात से परेशान राज्य के एक पूर्व जाने माने सांसद ने कहा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन अब कभी सीधे चुनाव में नहीं उतरूंगा।


लेकिन एक राज्य ऐसा हैं जिससे चुनावों में पैसे लुटाने के मामले में कर्नाटक सहित देश के कई अन्य राज्य पीछे रह जाएंगे। वह राज्य जिसने चुपके से चुनावों में पैसे के इस्तेमाल के बेहिसाब बढ़ते चलन के मामले में अन्य राज्यों को पछाड़ दिया वह है भारत का उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश। इस राज्य में जिसे आम भारतीय देश के राज्य और उसकी राजधानियों की सूची को तलाशते वक्त ही याद रखते हैं हाल ही में पंचायत चुनाव हुए हैं और कुछ उप चुनाव अभी भी चल रहे हैं।


प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस राज्य में जहां विदेशी तो क्या देशी पर्यटक भी विरले ही मिलते हैं आज की तारीख में चुनाव किसी योग्य उम्मीदवार के लिए दु:स्वप्न से कम नहीं रह गया है। यह स्थिति ग्राम पंचायत से लेकर संसदीय चुनावों तक सब पर लागू होती है। अरुणाचल की राजधानी ईटानगर की एक रसूख वाली महिला कहती हैं, "मैं पिछली बार विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन तभी मैंने महसूस किया कि मैं किसी राष्ट्रीय पार्टी का टिकट पाने की पहली बाधा भी नहीं पार सकती हूं। मुझे इसके लिए बहुत बड़ी रकम अदा करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकती थी। इसलिए मैंने चुनाव लड़ने के अपने इस ख्वाब को भूल जाना ही बेहतर समझा।"

यहां तक हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में भी वही उम्मीदवार खड़ा हो सका जो बड़ी रकम खर्च करने में समर्थ था। राज्य में समाज के अलग-अलग तबकों के साथ बातचीत के आधार पर आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां की राजनीति किस कदर पैसों के ही इर्द-गिर्द घूमती है। यहां तक पंचायत चुनावों में भी जहां 400-500 से ज्यादा मतदाता नहीं है वही उम्मीदवार जीतने का ख्वाब देख सकता है जो कम से कम चार-पांच लाख रुपये खर्च करे। इसी तरह जिला परिषद के चुनाव में जिस उम्मीदवार के पास 35-40 लाख रुपये खर्च करने की कुव्वत नहीं है उसके जीत की कोई गुंजाइश नहीं बचती। यह अलग बात है कि इतने रुपये खर्च करने के बाद भी जीत की कोई गारंटी नहीं होती।


ईटानगर से सड़क के रास्ते से छह घंटे की दूरी पर स्थित एक जिला मुख्यालय जीरो के एक शिक्षक बताते हैं, "मैंने जिला परिषद चुनाव में जिस निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन किया था उसने भी 30 से 35 लाख रुपये के बीच खर्च किए लेकिन वह जीत नहीं सका क्योंकि कांग्रेस के उम्मीदवार ने उससे भी ज्यादा खर्च किए।" अरुणाचल के एक जिला परिषद में औसतन 2800 मतदाता ही हैं और ऐसे में एक उम्मीदवार का इतनी बड़ी राशि खर्च करना यहां की राजनीति में पैसों के खेल का सहज खुलासा करता है।
रोचक तथ्य यह है कि अरुणाचल में हर स्तर के चुनाव में उम्मीदवार को तकरीबन हर मतदाता को वोट के लिए पैसे देने पड़ते हैं। राज्य के एक खूबसूरत पर्वतीय गांव पोतिन के भाजपा समर्थक हिगियो तालो ने कहा, "चुनाव के दौरान ज्यादातर मतदाता उम्मीदवार से पैसे मिलने की उम्मीद रखते हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी वे उम्मीदवार से पैसे मांगते भी हैं। अगर हम उन्हें पैसे नहीं देंगे तो वह वोट नहीं देंगे और अगर दिया भी तो जानबूझ कर अपना वोट अमान्य करा देंगे।" तालो उम्मीदवारों और उसके समर्थकों की परेशानियों की और भी कई दास्तान सुनाते हैं। वह कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम किसी वोटर को हजार-दो हजार रुपये देकर आश्वस्त हो सकते हैं वह हमें ही वोट देगा। हम यह भी ध्यान रखना होता है कि उस वोटर को कोई अन्य उम्मीदवार हमसे ज्यादा पैसे न दे दे। लेकिन हमारी लाख कोशिशों के बावजूद भी ऐसा हो जाता है। अगर हमने किसी वोटर को दो हजार रुपये दिए हैं तो विपक्षी पार्टी उसे तीन हजार रुपये दे देगी। मैं ऐसे वाकयों के बारे में भी जानता हूं जब किसी प्रभावशाली मतदाता को बीस से तीस हजार रुपये भी दिए गए हैं। ऐसे में वोटर उसी को वोट देता है जो उसे सबसे ज्यादा पैसे दे।" इसका मतलब हुआ कि राज्य के 16 जिलों के 161 जिला परिषदों में सिर्फ विजयी उम्मीदवार द्वारा करीब 60 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं।

अरुणाचल में चुनाव के दौरान वोटरों को नगद भुगतान करना अब कोई रहस्य नहीं है और कोई भी इस सच से इनकार नहीं करता है। राज्य के एक प्रभावशाली नेता जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है स्वीकारोक्ति के साथ कहते हैं, "लोकसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को 35 से 45 करोड़ रुपये की विशाल राशि खर्च करनी पड़ती है और इसमें से ज्यादातर हिस्सा मतदाताओं को नगद भुगतान करने में जाता है।" वह कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को तीन से पांच करोड़ रुपये तक ढीले करने पड़ते हैं। कुछ उम्मीदवार तो दस करोड़ रुपये तक खर्च करते हैं।

अब इतनी बड़ी राशि मतदाताओं की जेब में जा रही तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि वहां के उम्मीदवारों की क्रय क्षमता निश्चित तौर पर बेहद प्रभावशाली है। लेकिन सवाल उठता है कि उम्मीदवारों के पास चुनाव में खर्च करने के लिए इतने पैसे आते कहां से हैं। विश्वविद्यालय के एक शिक्षक के अनुसार ये पैसे केंद्रीय सरकार की कृपा से आते हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा राज्य को बड़ी राशि आवंटित होती है जिसका बड़ा हिस्सा नेताओं की जेब भारी करता है और ये नेता इसका इस्तेमाल चुनाव में मतदाताओं को खरीदने में लगाते हैं। हालांकि राज्य के एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ जो चुनावों में पैसे के इस्तेमाल को स्वीकार करते हैं का कहना है कि केंद्र से मिलने वाली राशि का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा नौकरशाह और ठेकेदार ले उड़ते हैं और 10 से 15 फीसदी रकम ही नेताओं के पास आ पाती है। उनके अनुसार जो भी रकम नेताओं के पास जाती है वह उसका इस्तेमाल चुनावों में करते हैं और नतीजतन राज्य के विकास का काम पीछे हो जाता है।

राजीव गांधी विश्वविद्यालय के एक लेक्चरर मोजी रीबा कहते हैं कि अक्सर राज्य में उसी पार्टी की सरकार बनती है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज हो। उनकी बात बिल्कुल सही है क्योंकि जब दिल्ली में राजग की सरकार आई तो अरुणाचल में राज कर रही कांग्रेस सरकार के सभी सदस्य भाजपा में शामिल हो गए और इसी तरह 2007 में राज्य की लगभग सभी भाजपा विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। विश्वविद्यालय के एक अन्य शिक्षाविद कहते हैं, "यह सब और कुछ नहीं पैसे की ताकत का खेल है। केवल नेता ही आम जनता भी इस खेल में शामिल हैं और उन्हें ऐसा करने में कुछ भी गलत नहीं लगता।" कर्नाटक के मतदाता इस बात पर जरूर अपनी पीठ थपथपा सकते हैं वे अभी भी अरुणाचलियों के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

बड़ी आश्चर्यजनक बात बतायी आपने। हमारे देश का मतदाता जब तक नहीं जागेगा, चोरी का पैसा ऐसे ही सिर चढ़कर बोलेगा और आम जनता लतियायी जाती रहेगी।