Wednesday, January 21, 2009

लगाम के डर से बिदका घोड़ा

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है एक आजाद मीडिया। पर भारत में इस आजादी की सीमा क्या है ? यह स्पष्ट नहीं है। शायद इसी का फायदा उठाकर इस स्वघोषित (संविधान में सिर्फ़ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को ही स्तम्भ कहा गया है) चौथे स्तम्भ ने समाज के प्रत्येक वर्ग में अपनी अपनी दखल दी। लोकतंत्र के अन्य सभी स्तंभों की सीमा और अधिकार की व्याख्या संविधान में मिलती है लेकिन मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ही एक सब-सेक्शन (१९-A) में समेट दिया गया है। प्रेस की गतिविधियों की निगरानी के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्थाएं हैं। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने विजुअल मीडिया की सीमा स्पष्ट करने के लिए कानून का मसौदा तेयार किया है। इससे मीडिया जगत की भौहें तन गयी हैं और इस काननों को रुकवाने के लिए हर स्तरसे प्रयास शुरू कर दिया गया है।

आखिर ऐसी स्थिति आयी क्यों ? इस पर विचार करने की जरूरत है। मीडिया और केन्द्र सरकार के बीच ताजातरीन विवाद मसौदे के उस हिस्से के मुद्दे पर है जिसमें किसी दंगे अथवा किसी ऐसी कार्रवाई जहाँ पुलिस या सेना तैनात हो के लाइव फुटेज पर पाबन्दी का प्रावधान है. सरकार का पक्ष है की लाइव कवरेज से आतंकी अथवा वे शरारती समूह जो तनाव भड़काना चाहते है उनको लाभ मिलता है. मीडिया सरकार के इस कदम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार मान रही है. मीडिया के सरपरस्तों को इस बात पर भी आपत्ति है की कोई एसडीएम रैंक का अधिकारी मीडिया-कर्मियो को ऐसी घटना के कवरेज से रोक सकता है जो उसकी निगाह में तनाव अथवा हिंसा भड़काने वाला हो. इस पहलू पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की जरूरत है. डीएम अथवा एसडीम अधिकारी बनने के लिए एक बेहद प्रतिस्पर्धी काम्पीटीसन को पास करना होता है. इस्सके बाद एक उच्च स्तरीय ट्रेनिंग भी हासिल करनी होती है जो प्रशासन के सभी पहलूओ में उन्हें दक्ष बनाने में सहायक होता है. दूसरी और वे पत्रकार होते हैं जिनकी नियुक्ति कैसे हुयी है? उनकी ट्रेनिंग कैसी है? क्या वे पत्रकारिता के एथिक्स जानते भी है? इसके बारे में पब्लिक को न के बराबर जानकारी होती है. शायद मीडिया की नियुक्तियों में वो पारदर्शिता नही है जो एक नौकरशाह की नियुक्ति में होती है।

आजाद भारत में स्थितियां बदल गयी हैं. गुलामी के वक्त अधिकांश अखबरों में राष्ट्रवादी व्यक्ति काबिज थे और उद्देश्य राष्ट्रसेवा था. देश की प्रगति ने मीडिया को शीघ्र ही एक उद्योग में तब्दील कर दिया. किसी भी अन्य उद्योग की तरह इस उद्योग से जुड़े पूंजीपतियों का भी मैन टारगेट पैसा कमाना है. आज की तारिख में देश के कई प्रतिष्टित व्यवसायिक घराने अपना चैनल या अखबार खोलने की जुगत में भिडे हैं. यह उन्हें न केवल पैसा देता है बल्कि बिज़नस इंटेरेस्ट को को साधने का अवसर भी देता है. फिलहाल देश में कई ऐसे तथाकथित मीडिया घराने है जिनका मुख्य बिज़नस चैनल या न्यूज़-पेपर न होकर कुछ और ही है ( मसलन चीनी उद्योग, दिस्तिल्लेरी, फैशन इंडस्ट्री सहित बहुत कुछ ) ऐसे मीडिया हाउस आजादी का ग़लत लाभ उठाकर अपने अन्य उद्योगे के मुफीद पॉलिसी बनवाते हैं. मीडिया का काम तथ्यों के साथ बिना किसी परिवर्तन के सूचना पब्लिक तक पहुंचाना होता है. लेकिन आज की मीडिया अपना व्यू पब्लिक पर थोपती है. पब्लिक वैसा ही सोचती है जैसी सूचना उसके सामने रखी जाती है।

मीडिया बहुत से लोगों को पब्लिक फिगर बताकर उनके व्यक्तिगत जीवन में जीभरकर हस्तछेप करती है. चैनल ने तो पत्रकारिता की नई विधा का ही इजाद कर दिया है जो जनहित या जनरुचि से कहीं आगे बढ़कर लोगों को डराने में यकीन रखती है. इस सनसनीखेज पत्रकारिता का नमूना हम कई बार देख चुके हैं. इसका उल्लेखनीय उदाहरण हम कमोबेश रोज देखतें है. हाल ही में मुंबई एटीएस ने उत्तर प्रदेश के एक हिंदूवादी नेता को गिरफ्तार किया. इस घटना के पहले मीडिया के पास सिर्फ़ इतनी ही सूचना थी कि यूपी के एक हिंदूवादी नेता को मुंबई एटीएस गिरफ्तार करने वाली है. सनसनीखेज बनने के लिए देश के स्वघोषित पहरेदारों ने अफवाह फैलाई कि संसद आदित्यनाथ को गिरफ्तार करेगी मुंबई एटीएस. बाद की घटना सभी को मालूम है. और जिस तरह से मीडिया के एक बहुत बड़े सेक्शन ने आरुषि हत्याकांड की रिपोर्टिंग की उससे बड़ी गैर जिम्मेदारी और क्या हो सकती है. और टीआरपी रेस में आगे निकलने के लिए जिस तरह से नाग-नागिन. आवश्यकता से अधिक ज्योतिष और पुनर्जन्म सहित कई अन्धविश्वासी कार्यक्रम दिखा रहे हैं. इस टीआरपी की रेस में चैनलों के रहनुमाओं को किसानो की समस्या नजर नही आती है बल्कि राजू श्रीवास्तव की कमेडी से पैसे बनाने की फिक्र है.

भाई-भतीजावाद सहित अन्य वे सभी बुराइयाँ का मीडिया में उतना ही मजबूत वजूद है जितना की मीडिया दूसरे सेक्टरों में दिखाती आयी है. शायद ये ख़ुद का स्टिंग ओपरेशन करने और उसे दिखाने की हिम्मत नही रखते हैं.

लेकिन इस अपरिपक्व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ अच्छे पहलू भी है. जनहित से जुड़े बहुत से मुद्दे पर बेहतरीन रिपोर्टिंग से पब्लिक को फायदा भी मिला है. प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खाते में कैश फॉर वोट, ओपरेशन दुर्योधन, बंगारू लक्ष्मन पर्दाफाश, बोफोर्स कांड का पर्दाफाश सहित मानवीय आपदा के वक्त के गयी रिपोर्टिंग है जिनपर मीडिया कर्मी गर्व कर सकते हैं. इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, जनसत्ता, सीएनएन- आईबीएन और टाईम्स नॉव एइसे ग्रुप हैं जिन्होंने कई अवसरों पर आला दर्जे की रिपोर्टिंग की है और पत्रकारिता के आदर्शों को और ऊँचा किया है.मीडिया सेल्फ रेगुलेशन की बात कई सालों से बात करती आयी है. मुंबई कांड पर हुई आलोचनाओ से नींद से जागी ब्रॉड-कास्टर असोसिअशन ने जो कोड ऑफ़ कंडक्ट घोषित किए हैं उनमे से अधिकांश सरकारी मसौदे में है. स्वस्थ पत्रकारिता करने वालों को यह सरकारी प्रस्ताव अपने अधिकारों पर कुठाराघात लग रहा है, जो की एक सीमा तक ही जायज प्रतीत होता है. मीडिया के भेष में छिपे धन्नासेठों की कारगुजारियों को रोकने के लिए सरकार का प्रस्ताव सराहनीय है. मीडिया को अपनी बुरईयों को दूर करने के लिए अपनी कार्यप्रणाली में और नियुक्तियों में पारदर्शिता लाने की जरूरत है ताकि मीडिया आम पब्लिक की निगाहों में अपने चौथे स्तम्भ के रुतबे को बरकरार रख सके.

धैर्य पूर्वक पढने के लिए शुक्रिया.

-शांतनु

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