Tuesday, August 26, 2008

पीएम इन वेटिंग डॉ. मनमोहन सिंह की चुनौतियाँ

उन सभी लोगों के लिए जो उम्मीद कर रहे हैं की बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह अन्तिम कार्यकाल होगा, उन्हें स्पष्ट संदेश दे दिया गया है. कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने गत सप्ताह अधिकारिक तौर पर घोषणा की थी की वे अगले साल भी १५ अगस्त को लाल किले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही झंडा फहराते देखना चाहती हैं. उनके इस बयान से आगामी लोकसभा चुनाव में यूपीए के प्रधानमंत्री पद के संभावित प्रत्याशियों के मुद्दे पर चल रही अटकलबाजी पर विराम लग गया है.चुनाव से पहले इस मुद्दे से जुड़े भ्रम के बादलो को साफ़ कर सोनिया ने यूपीए और कांग्रेस की स्थिति बेहतर की है. विशेषकर जब से 'गाँधी परिवार' के चापलूसों ने यह कहना शुरू कर दिया है की राहुल गाँधी को अभी प्रधानमंत्री बनने के लिए अभी काफी कुछ सीखना है. डॉ. मनमोहन सिंह के लिए सोनिया का विश्वास उनका आत्मविश्वास बढाने वाला है. यह उन्हें राष्ट्र हित से जुड़े मुद्दों पर और अधिक सक्रिय करेगा.यूपीए के कई नेताओ ने सोनिया को मनमोहन सिंह का नाम आगे करने के लिए प्रोत्साहित किया. कृषि मंत्री शरद पवार ने हाल ही में बयान दिया था की उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव के लिए यूपीए की ओर से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री का उमीदवार घोषित करने पर किसी तरह की आपत्ति नही है.यूपीए के दो बड़े नेताओ द्वारा उनके नाम की घोषणा करने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती इनके विस्वास पर खरे उतरने की है, जिसे उनसे बेहतर और कोई नही समझ सकता है. फिलहाल जिन समस्याओ से सरकार जूझ रही है उनके त्वरित समाधान की जिम्मेदारी उन्ही पर है. इन मुद्दों का शांतिपूर्ण हल यूपीए को आगामी चुनाव से जुड़ी तैयारियों में सहायता पहुँचायेगा. हालाँकि अगला लोकसभा चुनाव जीतने के लिए मनमोहन सिंह को अभी काफ़ी लंबा सफर तय करना है. पिछले चार साल के कार्यकाल के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार के खाते में कई बेमिशाल उपलब्धियां हैं, लेकिन कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में वे कई तरह की समस्यओं से घिरे हुए हैं. जम्मू और कश्मीर की हालियाँ घटनाएँ उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. राज्य की लगातार बिगड़ती स्थिति के लिए मनमोहन सिंह और उनका प्रधानमंत्री कार्यालय काफी हद तक जिम्मेदार है. गवर्नर ले.ज. एस. के सिन्हा के जगजाहिर दक्षिणपंथी सोच के बावजूद उन पर विस्वास बनाये रखना लोगों की समझ से परे है. उनके इस नजरिये पर कांग्रेसी नेता भी आश्चर्य जाता चुकें हैं. जब राज्य में चल रहे तनाव की नींव राज्यपाल रख रहे थे तब भी पीएमओ और गृह मंत्रालय स्थिति की गंभीरता का अनुमान नही लगा सका. राज्य के सांप्रदायिक आग में जलने के बावजूद प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक देरी से बुलाना समझ से परे है. राज्य की स्थिति दिन-प्रतिदिन सरकार की हाथ से निकलती जा रही है और भौचक्की सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. जम्मू और कश्मीर की लगातार बिगड़ती स्थिति यूपीए सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है, लाल किले से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने थोड़ा बहुत जरूर कहा. हालाँकि उनके शब्दों में वह विश्वास नही दिखा जो लोगों को यकीन दिला सके कि स्थिति सरकार के नियंत्रण में है.कैबिनेट और कांग्रेस पार्टी में मनमोहन सिंह के समर्थक राज्य की बिगड़ती स्थिति के प्रति लंबे समय तक बरती गई उदासीनता की वजह प्रधानमंत्री की न्यूक्लियर डील पर अत्यधिक ध्यान देना मानते हैं.
जम्मू कश्मीर कि मौजूदा स्थिति कि ही तरह दिन-ब-दिन बढती महंगाई भी यूपीए के लिए राजनितिक तौर पर नुकसानदायक है. किसी भी सरकार के शासनकाल में मुद्रास्फीति कि डर में होने वाली वृद्धि उसकी अयोग्यता और निक्कमेपन को दर्शाती है. और जब प्रधानमंत्री ही अर्थशात्री हो तो स्थिति और भी शर्मनाक हो जाती है. मनमोहन सिंह ने महंगाई बढ़ने के लिए विदेशी कारकों को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में ताल कि कीमते गिरने के बावजूद उनकी सरकार महंगाई रोकने में नाकाम रही है. यह मनमोहन सरकार कि कर्यषमता पर प्रश्नचिंह लगाता है.ये दो समस्याएँ अकेले ही लोकसभा चुनाव में यूपीए के जनादेश पाने के अभियान को झटका देने में सक्षम हैं. कैश फॉर वोट कांड भी यूपीए कि छवि को नुक्सान पहुँचा सकता है. इस कांड की जाँच करने वाली संसदीय समिति का फ़ैसला मनमोहन सिंह के आसमान छूते आत्मविश्वास को नुकसान भी पहुँचा सकता है, इसके अलावा विश्वास मत हासिल करने के लिए की गई सौदेबाजी भी अब सामने आने लगी है. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष खुलेआम कहते फिर रहें हैं की उन्हें यूपीए ने समर्थन के बदले झारखण्ड में मुख्यमंत्री की कुर्सी देने का वायदा किया गया था. वायदा पूरा न होने पर सोरेन ने निर्दलीय मधि कोडा सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इन दोनों प्रकरणों की गूँज भी आगामी चुनाव के दौरान निश्चित तौर पर रहेगी.निःसंदेह डॉ. मनमोहन सिंह और उनके सहयोगी चुनावी अभियान को प्रभावित करने वाले इन सभी मुद्दों पर निगाह रखे होंगे. प्रधानमंत्री की तरकश में सिर्फ़ न्यूक्लियर डील ही एक मात्र ऐसा बाण है जो उन्हें चुनाव में रहत पहुँचा सकता है. इस डील को एनएसजी और अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी अगले महीने तक मिल सकती है. यूपीए की रणनीति इस उपलब्धि को बेमिसाल बताकर भुनाने की हो सकती है. साथ ही यूपीए के मीडिया मैनेजर्स इसका उपयोग जनता के मानस पटल से मौजूदा सभी समस्यओं को मिटने के लिए भी तैयार होंगे. यह काफी हद तक अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी एनडीए की इंडिया शाइनिंग अभियान जैसी ही है, और सभी को पता है की इस आत्मघाती अभियान ने वाजपेयी और एनडीए का क्या हश्र किया था. मनमोहन सिंह को इससे सबक सीखना चाहिए और अगले आठ महीनों में इस गलती को दोहराने की बजाये जमीनी समस्याओ का समाधान करना चाहिए. कोई भी उनकी सरकार की वास्तविक उपलब्धि को उनसे छीन नही सकता है. एक न्यूक्लियर डील के बूते ही चुनाव जीतने का निष्कर्ष निकलना उचित नही होगा. न्यूक्लियर डील के बावजूद यूपीए के पीएम इन वेटिंग मनमोहन सिंह के लिए चुनावी दंगल-२००९ मुश्किलों भरा होगा.
(Translated from english by Shantanu Srivastava

2 comments:

Udan Tashtari said...

पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

Jimmy said...

hmmmmmmm aacha Hai



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