उन सभी लोगों के लिए जो उम्मीद कर रहे हैं की बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह अन्तिम कार्यकाल होगा, उन्हें स्पष्ट संदेश दे दिया गया है. कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने गत सप्ताह अधिकारिक तौर पर घोषणा की थी की वे अगले साल भी १५ अगस्त को लाल किले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही झंडा फहराते देखना चाहती हैं. उनके इस बयान से आगामी लोकसभा चुनाव में यूपीए के प्रधानमंत्री पद के संभावित प्रत्याशियों के मुद्दे पर चल रही अटकलबाजी पर विराम लग गया है.चुनाव से पहले इस मुद्दे से जुड़े भ्रम के बादलो को साफ़ कर सोनिया ने यूपीए और कांग्रेस की स्थिति बेहतर की है. विशेषकर जब से 'गाँधी परिवार' के चापलूसों ने यह कहना शुरू कर दिया है की राहुल गाँधी को अभी प्रधानमंत्री बनने के लिए अभी काफी कुछ सीखना है. डॉ. मनमोहन सिंह के लिए सोनिया का विश्वास उनका आत्मविश्वास बढाने वाला है. यह उन्हें राष्ट्र हित से जुड़े मुद्दों पर और अधिक सक्रिय करेगा.यूपीए के कई नेताओ ने सोनिया को मनमोहन सिंह का नाम आगे करने के लिए प्रोत्साहित किया. कृषि मंत्री शरद पवार ने हाल ही में बयान दिया था की उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव के लिए यूपीए की ओर से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री का उमीदवार घोषित करने पर किसी तरह की आपत्ति नही है.यूपीए के दो बड़े नेताओ द्वारा उनके नाम की घोषणा करने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती इनके विस्वास पर खरे उतरने की है, जिसे उनसे बेहतर और कोई नही समझ सकता है. फिलहाल जिन समस्याओ से सरकार जूझ रही है उनके त्वरित समाधान की जिम्मेदारी उन्ही पर है. इन मुद्दों का शांतिपूर्ण हल यूपीए को आगामी चुनाव से जुड़ी तैयारियों में सहायता पहुँचायेगा. हालाँकि अगला लोकसभा चुनाव जीतने के लिए मनमोहन सिंह को अभी काफ़ी लंबा सफर तय करना है. पिछले चार साल के कार्यकाल के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार के खाते में कई बेमिशाल उपलब्धियां हैं, लेकिन कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में वे कई तरह की समस्यओं से घिरे हुए हैं. जम्मू और कश्मीर की हालियाँ घटनाएँ उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. राज्य की लगातार बिगड़ती स्थिति के लिए मनमोहन सिंह और उनका प्रधानमंत्री कार्यालय काफी हद तक जिम्मेदार है. गवर्नर ले.ज. एस. के सिन्हा के जगजाहिर दक्षिणपंथी सोच के बावजूद उन पर विस्वास बनाये रखना लोगों की समझ से परे है. उनके इस नजरिये पर कांग्रेसी नेता भी आश्चर्य जाता चुकें हैं. जब राज्य में चल रहे तनाव की नींव राज्यपाल रख रहे थे तब भी पीएमओ और गृह मंत्रालय स्थिति की गंभीरता का अनुमान नही लगा सका. राज्य के सांप्रदायिक आग में जलने के बावजूद प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक देरी से बुलाना समझ से परे है. राज्य की स्थिति दिन-प्रतिदिन सरकार की हाथ से निकलती जा रही है और भौचक्की सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है. जम्मू और कश्मीर की लगातार बिगड़ती स्थिति यूपीए सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है, लाल किले से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने थोड़ा बहुत जरूर कहा. हालाँकि उनके शब्दों में वह विश्वास नही दिखा जो लोगों को यकीन दिला सके कि स्थिति सरकार के नियंत्रण में है.कैबिनेट और कांग्रेस पार्टी में मनमोहन सिंह के समर्थक राज्य की बिगड़ती स्थिति के प्रति लंबे समय तक बरती गई उदासीनता की वजह प्रधानमंत्री की न्यूक्लियर डील पर अत्यधिक ध्यान देना मानते हैं.
जम्मू कश्मीर कि मौजूदा स्थिति कि ही तरह दिन-ब-दिन बढती महंगाई भी यूपीए के लिए राजनितिक तौर पर नुकसानदायक है. किसी भी सरकार के शासनकाल में मुद्रास्फीति कि डर में होने वाली वृद्धि उसकी अयोग्यता और निक्कमेपन को दर्शाती है. और जब प्रधानमंत्री ही अर्थशात्री हो तो स्थिति और भी शर्मनाक हो जाती है. मनमोहन सिंह ने महंगाई बढ़ने के लिए विदेशी कारकों को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में ताल कि कीमते गिरने के बावजूद उनकी सरकार महंगाई रोकने में नाकाम रही है. यह मनमोहन सरकार कि कर्यषमता पर प्रश्नचिंह लगाता है.ये दो समस्याएँ अकेले ही लोकसभा चुनाव में यूपीए के जनादेश पाने के अभियान को झटका देने में सक्षम हैं. कैश फॉर वोट कांड भी यूपीए कि छवि को नुक्सान पहुँचा सकता है. इस कांड की जाँच करने वाली संसदीय समिति का फ़ैसला मनमोहन सिंह के आसमान छूते आत्मविश्वास को नुकसान भी पहुँचा सकता है, इसके अलावा विश्वास मत हासिल करने के लिए की गई सौदेबाजी भी अब सामने आने लगी है. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष खुलेआम कहते फिर रहें हैं की उन्हें यूपीए ने समर्थन के बदले झारखण्ड में मुख्यमंत्री की कुर्सी देने का वायदा किया गया था. वायदा पूरा न होने पर सोरेन ने निर्दलीय मधि कोडा सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इन दोनों प्रकरणों की गूँज भी आगामी चुनाव के दौरान निश्चित तौर पर रहेगी.निःसंदेह डॉ. मनमोहन सिंह और उनके सहयोगी चुनावी अभियान को प्रभावित करने वाले इन सभी मुद्दों पर निगाह रखे होंगे. प्रधानमंत्री की तरकश में सिर्फ़ न्यूक्लियर डील ही एक मात्र ऐसा बाण है जो उन्हें चुनाव में रहत पहुँचा सकता है. इस डील को एनएसजी और अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी अगले महीने तक मिल सकती है. यूपीए की रणनीति इस उपलब्धि को बेमिसाल बताकर भुनाने की हो सकती है. साथ ही यूपीए के मीडिया मैनेजर्स इसका उपयोग जनता के मानस पटल से मौजूदा सभी समस्यओं को मिटने के लिए भी तैयार होंगे. यह काफी हद तक अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी एनडीए की इंडिया शाइनिंग अभियान जैसी ही है, और सभी को पता है की इस आत्मघाती अभियान ने वाजपेयी और एनडीए का क्या हश्र किया था. मनमोहन सिंह को इससे सबक सीखना चाहिए और अगले आठ महीनों में इस गलती को दोहराने की बजाये जमीनी समस्याओ का समाधान करना चाहिए. कोई भी उनकी सरकार की वास्तविक उपलब्धि को उनसे छीन नही सकता है. एक न्यूक्लियर डील के बूते ही चुनाव जीतने का निष्कर्ष निकलना उचित नही होगा. न्यूक्लियर डील के बावजूद यूपीए के पीएम इन वेटिंग मनमोहन सिंह के लिए चुनावी दंगल-२००९ मुश्किलों भरा होगा.
(Translated from english by Shantanu Srivastava
Tuesday, August 26, 2008
Monday, July 14, 2008
दक्षिण दृष्टि
हड़बड़ी और गड़बड़ी यानी येदियुरप्पा
पिछले कई वर्षों में दक्षिण भारत की राजनीति को नजदीक से देखने के बाद कर्नाटक में बी एस येदियुरप्पा की अगुवाई वाली महज छह सप्ताह पुरानी भारतीय जनता पार्टी की सरकार की तेजी हैरान कर देती है कर्नाटक या यूं कहें कि दक्षिण भारत में किसी भी राज्य सरकार ने इतने कम समय में इतनी "शानदार" उपलब्धियां हासिल नही की जितना की येदियुरप्पा सरकार कर चुकी है.हड़बड़ी में काम करने के लिए कुख्यात येदियुरप्पा ने काफी कम समय में ही कई काम "सिद्ध" कर दिखाए हैं. उन्होंने अपने सिद्धि की शुरुआत उत्तर कर्नाटक के हावेरी में उर्वरक की मांग कर रहे किसानों पर गोलीबारी की घटना से की जिसमें दो किसान मारे गए। निश्चित तौर पर उन्हें इस घटना में किसी की साजिश नजर आई और उन्होंने उर्वरक की कमी के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करना जारी रखा। हालांकि उर्वरक की कमी के दावे को उनके ही कई अधिकारी गलत बता रहे हैं। ऐसा लगता है इतना ही काफी नहीं था, उनके वफादार मंत्रियों में से एक जिनके पास राज्य के मंदिरों की देखरेख का जिम्मा है, उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मंदिरों को मुख्यमंत्री के नाम से रोज सुबह "होम" कराने का आदेश जारी कर दिया। खुद को मंत्री बनाए जाने पर कुछ ज्यादा ही अनुग्रहित महसूस कर रहे अपने इस वफादार मंत्री के आदेश को येदियुरप्पा को बिना समय गंवाए वापस लेना पड़ा साथ ही उन्होंने उस मंत्री को कड़ी फटकार भी लगाई। इसके बाद मुख्यमंत्री ने एक और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अब तक 120 आईएएस अधिकारियों का भी तबादला कर चुके हैं। इससे उन पर यह आरोप भी लगने लगे हैं कि उन्होंने यह कदम जातिगत भावनाओं से प्रेरित होकर उठाया है।और भी ज्यादा स्तब्ध करने वाली बात यह सामने आ रही है कि मुख्यमंत्री जल्द ही मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं। खुद येदियुरप्पा द्वारा हवा दिए गए इन कयासों के बीच राज्य सरकार के मंत्रिमंडल के सदस्य खासे तनाव में हैं। मंत्रियों के बीच इस तरह का तनाव किसी भी सरकार के कार्यकाल के पहले ही महीने में अब तक नहीं देखा गया है। गृह मंत्री वी एस आचार्य समेत कई मंत्रियों को अपना विभाग खोने का डर सताने लगा है। ऐसा समझा जा रहा है कि बदलाव की यह संभावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राज्य इकाई की ओर से बढ़ते दबाव के कारण है। संघ मंत्रिमंडल के मौजूदा स्वरूप से खुश नहीं है और वह इसमें बदलाव चाहता है। येदियुरप्पा हाल ही में बदलाव के बारे में चर्चा करने के लिए संघ मुख्यालय भी पहुंच गए थे।
ऐसा लगता है कि इतना ही काफ़ी नहीं था। येदियुरप्पा ने खुद को सही मायनों में हड़बडि़या साबित करते हुए अपने कैबिनेट के धनाढ्यों रेड्डी बंधुओं (बेल्लीरी के खदान मालिक) और उनके नजदीकी चेले मंत्री श्रीरामुलु को विधायकों के जोड़-तोड़ का अभियान सौंप दिया है। यह अभियान सफल भी होता दिख रहा है। कांग्रेस के सांसद आर एल जलप्पा के बेटे समेत दो कांग्रेस विधायक और दो जनता दल (एस) विधायक अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
रेड्डी बंधु इन विधायकों को बेल्लारी ले गए थे। जहां डील फाइनल हो जाने के बाद वे उन्हें हेलीकाप्टर से बेंगलूर लेकर आए और फिर विधानसभा स्पीकर के सामने मार्च करवाकर इस्तीफा दिलवाया। सौदा यह हुआ कि ये विधायक भाजपा के टिकट पर फिर से उपचुनाव लड़ेंगे जिसका पूरा खर्च रेड्डी बंधु उठाएंगे। 224 सदस्यों वाली विधानसभा में अभी भाजपा के 110 सदस्य हैं जो साधारण बहुमत से तीन कम है। विधायकों का यह जोड़-तोड़ उन चार निर्दलीय विधायकों से छुटकारा पाने के लिए किया है जिन्हें मजबूरी में मंत्री पद सौंपा गया है। भाजपा अभी भी इन निर्दलीय विधायकों को भरोसेमंद नहीं मानती है। रेड्डी बंधुओं को कांग्रेस और जनता दल (एस) से और भी विधायकों को तोड़कर लाने को कहा गया है। इन दोनों शिकार ग्रस्त पार्टियों के नेता मन ही मन कुढ़ने के अलावा भाजपा को लोगों के संभावित रोष के बारे में सिर्फ़ चेतावनी ही दे पा रहे हैं. इन सब के बीच येदियुरप्पा वादों की बरसात करते हुए अपनी हडबडिया शैली में अपनी सरकार चलाते जा रहे है.
आंध्र में चीरू फैक्टर से हड़कंप
इस बीच आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी अपने ही पार्टी सदस्यों द्वारा उन पर भ्रष्ट होने के आरोपों को सफलता से निबटाने के बाद अब ख़ुद को एक नई चुनौती के लिए तैयार कर रहे हैं. यह चुनौती तेलगू सिनेमा के सुपर स्टार चिरंजीवी की तरफ से आ रही है। राज्य में बड़ी तादाद में मौजूद अपने प्रशंसकों के बीच चीरू नाम से मशहूर इस मेगा स्टार ने राजनीति के अखाड़े में कूदने का फैसला कर लिया है। आने वाले कुछ सप्ताहों में वह अपनी नई पार्टी का ऐलान कर देंगे। पिछले साढे़ चार साल के अपने कार्यकाल के दौरान कई चुनौतियों से गुजर चुके वाईएसआर के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती अपने नेताओं को कांग्रेस में बनाए रखना है जो चिरंजीवी की तरफ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं। वास्तव में यह समस्या सिर्फ वाईएसआर की ही नहीं है। तेलगुदेशम प्रमुख चंद्रबाबू नायडू से लेकर भाजपा और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेताओं को भी चीरू फैक्टर से निबटने में खासी परेशानी हो रही है क्योंकि उनके नेता और कार्यकर्ता नई पार्टी में शामिल होने की योजना बना रहे हैं।
नायडू को तो बड़ा झटका लग भी चुका है। तेदपा में नंबर दो की हैसियत रखने वाले देवेंद्र गौड़ नायडू पर यह आरोप लगाकर पार्टी छोड़ चुके हैं कि वह अलग तेलंगाना राज्य के मामले पर गंभीर नहीं हैं और लगातार इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। वैसे तो गौड़ टीआरएस सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव की तरह करिश्माई नेता नहीं हैं लेकिन चिरंजीवी के साथ हाथ मिलाकर वह एक बड़ी शक्ति जरूर बन सकते हैं।
आंध्र प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक हालात इतने उलझे हुए हैं किअभी यह कहना बेहद मुश्किल है कि आगामी चुनावों में कौन किसे नुकसान पहुंचाएगा। चिरंजीवी की आने वाली पार्टी को मिलाकर राज्य की चार पार्टियों के अलावा वामदल और भाजपा भी उलझन बढ़ाने का काम कर रहे हैं जिससे चुनावी पंडितों को आने वाले समीकरण को सुलझाने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। हालांकि वाईएसआर को उम्मीद है कि उनके सरकार की उपलब्धियां जिसे उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं आगामी चुनावों में कांग्रेस की नैया पार लगा देगी। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं और चुनाव की घड़ी नजदीक आ रही है आंध्र प्रदेश की राजनीतिक स्थिति रोचक होती जा रही है। अब चिरंजीवी अगले एनटीआर साबित होंगे या उनके दावे महज शोशेबाजी निकलेगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
महत्व खोते करुणानिधि
तमिलनाडु में भी राजनीतिक तस्वीर दिनोंदिन धुंधली होती जा रही है। डीएमके प्रमुख एम्. करुणानिधि के ऊपर अपने ही गठबंधन की ओर से दबाव पड़ रहा है। डा. पी. रामदौस की वन्नियार पार्टी पीएमके पहले ही गठबंधन से अलग हो चुकी है। हालांकि करुणानिधि पीएमके को केंद्र की यूपीए सरकार से अलग कर पाने में सफल नहीं हो सके जहां पी रामदौस के बेटे अंबुमणि रामदौस अभी भी केंद्रीय मंत्री हैं। डीएमके प्रमुख अपने दोनों बेटों स्टालिन और अलगीरी के साथ अपनी बंटी हुई प्रतिबद्धता के कारण भी लगातार समस्या में हैं। करुणानिधि संप्रग के प्रमुख नेता के तौर पर भी अपना महत्व खोते जा रहे हैं। पहले उन्होंने दावा किया था कि वह वामदलों और कांग्रेस के बीच समझौता करवा देंगे लेकिन जब इन दोनों के बीच हालिया टकराव हुआ तो करुणानिधि कुछ नहीं कर सके। उन्होंने यह भी कहा था रिश्ते सुधारने के प्रयास में वह दिल्ली भी जाएंगे लेकिन वह दिल्ली भी नहीं पहुंचे। वह वामदलों द्वारा संप्रग सरकार से समर्थन वापसी के घटनाक्रम को चेन्नई में बैठकर चुपचाप देखते रहे। इन सभी घटनाओं की गूंज एआईएडीएमके की नेता जयललिता के कानों में मिश्री घोल रही होगी जो दिनोंदिन भाजपा के करीब जाती दिख रही हैं।
(Courtesy Dainik Bhaskar)
पिछले कई वर्षों में दक्षिण भारत की राजनीति को नजदीक से देखने के बाद कर्नाटक में बी एस येदियुरप्पा की अगुवाई वाली महज छह सप्ताह पुरानी भारतीय जनता पार्टी की सरकार की तेजी हैरान कर देती है कर्नाटक या यूं कहें कि दक्षिण भारत में किसी भी राज्य सरकार ने इतने कम समय में इतनी "शानदार" उपलब्धियां हासिल नही की जितना की येदियुरप्पा सरकार कर चुकी है.हड़बड़ी में काम करने के लिए कुख्यात येदियुरप्पा ने काफी कम समय में ही कई काम "सिद्ध" कर दिखाए हैं. उन्होंने अपने सिद्धि की शुरुआत उत्तर कर्नाटक के हावेरी में उर्वरक की मांग कर रहे किसानों पर गोलीबारी की घटना से की जिसमें दो किसान मारे गए। निश्चित तौर पर उन्हें इस घटना में किसी की साजिश नजर आई और उन्होंने उर्वरक की कमी के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करना जारी रखा। हालांकि उर्वरक की कमी के दावे को उनके ही कई अधिकारी गलत बता रहे हैं। ऐसा लगता है इतना ही काफी नहीं था, उनके वफादार मंत्रियों में से एक जिनके पास राज्य के मंदिरों की देखरेख का जिम्मा है, उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मंदिरों को मुख्यमंत्री के नाम से रोज सुबह "होम" कराने का आदेश जारी कर दिया। खुद को मंत्री बनाए जाने पर कुछ ज्यादा ही अनुग्रहित महसूस कर रहे अपने इस वफादार मंत्री के आदेश को येदियुरप्पा को बिना समय गंवाए वापस लेना पड़ा साथ ही उन्होंने उस मंत्री को कड़ी फटकार भी लगाई। इसके बाद मुख्यमंत्री ने एक और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अब तक 120 आईएएस अधिकारियों का भी तबादला कर चुके हैं। इससे उन पर यह आरोप भी लगने लगे हैं कि उन्होंने यह कदम जातिगत भावनाओं से प्रेरित होकर उठाया है।और भी ज्यादा स्तब्ध करने वाली बात यह सामने आ रही है कि मुख्यमंत्री जल्द ही मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं। खुद येदियुरप्पा द्वारा हवा दिए गए इन कयासों के बीच राज्य सरकार के मंत्रिमंडल के सदस्य खासे तनाव में हैं। मंत्रियों के बीच इस तरह का तनाव किसी भी सरकार के कार्यकाल के पहले ही महीने में अब तक नहीं देखा गया है। गृह मंत्री वी एस आचार्य समेत कई मंत्रियों को अपना विभाग खोने का डर सताने लगा है। ऐसा समझा जा रहा है कि बदलाव की यह संभावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राज्य इकाई की ओर से बढ़ते दबाव के कारण है। संघ मंत्रिमंडल के मौजूदा स्वरूप से खुश नहीं है और वह इसमें बदलाव चाहता है। येदियुरप्पा हाल ही में बदलाव के बारे में चर्चा करने के लिए संघ मुख्यालय भी पहुंच गए थे।
ऐसा लगता है कि इतना ही काफ़ी नहीं था। येदियुरप्पा ने खुद को सही मायनों में हड़बडि़या साबित करते हुए अपने कैबिनेट के धनाढ्यों रेड्डी बंधुओं (बेल्लीरी के खदान मालिक) और उनके नजदीकी चेले मंत्री श्रीरामुलु को विधायकों के जोड़-तोड़ का अभियान सौंप दिया है। यह अभियान सफल भी होता दिख रहा है। कांग्रेस के सांसद आर एल जलप्पा के बेटे समेत दो कांग्रेस विधायक और दो जनता दल (एस) विधायक अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
रेड्डी बंधु इन विधायकों को बेल्लारी ले गए थे। जहां डील फाइनल हो जाने के बाद वे उन्हें हेलीकाप्टर से बेंगलूर लेकर आए और फिर विधानसभा स्पीकर के सामने मार्च करवाकर इस्तीफा दिलवाया। सौदा यह हुआ कि ये विधायक भाजपा के टिकट पर फिर से उपचुनाव लड़ेंगे जिसका पूरा खर्च रेड्डी बंधु उठाएंगे। 224 सदस्यों वाली विधानसभा में अभी भाजपा के 110 सदस्य हैं जो साधारण बहुमत से तीन कम है। विधायकों का यह जोड़-तोड़ उन चार निर्दलीय विधायकों से छुटकारा पाने के लिए किया है जिन्हें मजबूरी में मंत्री पद सौंपा गया है। भाजपा अभी भी इन निर्दलीय विधायकों को भरोसेमंद नहीं मानती है। रेड्डी बंधुओं को कांग्रेस और जनता दल (एस) से और भी विधायकों को तोड़कर लाने को कहा गया है। इन दोनों शिकार ग्रस्त पार्टियों के नेता मन ही मन कुढ़ने के अलावा भाजपा को लोगों के संभावित रोष के बारे में सिर्फ़ चेतावनी ही दे पा रहे हैं. इन सब के बीच येदियुरप्पा वादों की बरसात करते हुए अपनी हडबडिया शैली में अपनी सरकार चलाते जा रहे है.
आंध्र में चीरू फैक्टर से हड़कंप
इस बीच आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी अपने ही पार्टी सदस्यों द्वारा उन पर भ्रष्ट होने के आरोपों को सफलता से निबटाने के बाद अब ख़ुद को एक नई चुनौती के लिए तैयार कर रहे हैं. यह चुनौती तेलगू सिनेमा के सुपर स्टार चिरंजीवी की तरफ से आ रही है। राज्य में बड़ी तादाद में मौजूद अपने प्रशंसकों के बीच चीरू नाम से मशहूर इस मेगा स्टार ने राजनीति के अखाड़े में कूदने का फैसला कर लिया है। आने वाले कुछ सप्ताहों में वह अपनी नई पार्टी का ऐलान कर देंगे। पिछले साढे़ चार साल के अपने कार्यकाल के दौरान कई चुनौतियों से गुजर चुके वाईएसआर के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती अपने नेताओं को कांग्रेस में बनाए रखना है जो चिरंजीवी की तरफ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं। वास्तव में यह समस्या सिर्फ वाईएसआर की ही नहीं है। तेलगुदेशम प्रमुख चंद्रबाबू नायडू से लेकर भाजपा और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेताओं को भी चीरू फैक्टर से निबटने में खासी परेशानी हो रही है क्योंकि उनके नेता और कार्यकर्ता नई पार्टी में शामिल होने की योजना बना रहे हैं।
नायडू को तो बड़ा झटका लग भी चुका है। तेदपा में नंबर दो की हैसियत रखने वाले देवेंद्र गौड़ नायडू पर यह आरोप लगाकर पार्टी छोड़ चुके हैं कि वह अलग तेलंगाना राज्य के मामले पर गंभीर नहीं हैं और लगातार इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। वैसे तो गौड़ टीआरएस सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव की तरह करिश्माई नेता नहीं हैं लेकिन चिरंजीवी के साथ हाथ मिलाकर वह एक बड़ी शक्ति जरूर बन सकते हैं।
आंध्र प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक हालात इतने उलझे हुए हैं किअभी यह कहना बेहद मुश्किल है कि आगामी चुनावों में कौन किसे नुकसान पहुंचाएगा। चिरंजीवी की आने वाली पार्टी को मिलाकर राज्य की चार पार्टियों के अलावा वामदल और भाजपा भी उलझन बढ़ाने का काम कर रहे हैं जिससे चुनावी पंडितों को आने वाले समीकरण को सुलझाने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। हालांकि वाईएसआर को उम्मीद है कि उनके सरकार की उपलब्धियां जिसे उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं आगामी चुनावों में कांग्रेस की नैया पार लगा देगी। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं और चुनाव की घड़ी नजदीक आ रही है आंध्र प्रदेश की राजनीतिक स्थिति रोचक होती जा रही है। अब चिरंजीवी अगले एनटीआर साबित होंगे या उनके दावे महज शोशेबाजी निकलेगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
महत्व खोते करुणानिधि
तमिलनाडु में भी राजनीतिक तस्वीर दिनोंदिन धुंधली होती जा रही है। डीएमके प्रमुख एम्. करुणानिधि के ऊपर अपने ही गठबंधन की ओर से दबाव पड़ रहा है। डा. पी. रामदौस की वन्नियार पार्टी पीएमके पहले ही गठबंधन से अलग हो चुकी है। हालांकि करुणानिधि पीएमके को केंद्र की यूपीए सरकार से अलग कर पाने में सफल नहीं हो सके जहां पी रामदौस के बेटे अंबुमणि रामदौस अभी भी केंद्रीय मंत्री हैं। डीएमके प्रमुख अपने दोनों बेटों स्टालिन और अलगीरी के साथ अपनी बंटी हुई प्रतिबद्धता के कारण भी लगातार समस्या में हैं। करुणानिधि संप्रग के प्रमुख नेता के तौर पर भी अपना महत्व खोते जा रहे हैं। पहले उन्होंने दावा किया था कि वह वामदलों और कांग्रेस के बीच समझौता करवा देंगे लेकिन जब इन दोनों के बीच हालिया टकराव हुआ तो करुणानिधि कुछ नहीं कर सके। उन्होंने यह भी कहा था रिश्ते सुधारने के प्रयास में वह दिल्ली भी जाएंगे लेकिन वह दिल्ली भी नहीं पहुंचे। वह वामदलों द्वारा संप्रग सरकार से समर्थन वापसी के घटनाक्रम को चेन्नई में बैठकर चुपचाप देखते रहे। इन सभी घटनाओं की गूंज एआईएडीएमके की नेता जयललिता के कानों में मिश्री घोल रही होगी जो दिनोंदिन भाजपा के करीब जाती दिख रही हैं।
(Courtesy Dainik Bhaskar)
Monday, June 30, 2008
अरुणाचल: यहां हर वोट बिकाऊ है!
हाल ही में संपन्न कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान इस बात की खुली चर्चा हुई कि वहां जीत हासिल करने की ललक में किस तरह पैसे लुटाए गए। इस चुनाव से पूर्व मतदाताओं को खरीदने के लिए कभी इस तरह मनी पावर का इस्तेमाल नहीं हुआ था। उन जगहों पर तो स्थिति और भी विकराल थी जहां खनन और रियल स्टेट माफिया हावी थी। यहां तक इमानदार चुनावों के दिनों में जिन्हें असली धन कुबेर समझा जाता था वे भी पैसा लुटाने वाली नई ताकतों के सामने पानी भरते नजर आए। चुनाव प्रचार के समय मौजूदा हालात से परेशान राज्य के एक पूर्व जाने माने सांसद ने कहा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन अब कभी सीधे चुनाव में नहीं उतरूंगा।
लेकिन एक राज्य ऐसा हैं जिससे चुनावों में पैसे लुटाने के मामले में कर्नाटक सहित देश के कई अन्य राज्य पीछे रह जाएंगे। वह राज्य जिसने चुपके से चुनावों में पैसे के इस्तेमाल के बेहिसाब बढ़ते चलन के मामले में अन्य राज्यों को पछाड़ दिया वह है भारत का उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश। इस राज्य में जिसे आम भारतीय देश के राज्य और उसकी राजधानियों की सूची को तलाशते वक्त ही याद रखते हैं हाल ही में पंचायत चुनाव हुए हैं और कुछ उप चुनाव अभी भी चल रहे हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस राज्य में जहां विदेशी तो क्या देशी पर्यटक भी विरले ही मिलते हैं आज की तारीख में चुनाव किसी योग्य उम्मीदवार के लिए दु:स्वप्न से कम नहीं रह गया है। यह स्थिति ग्राम पंचायत से लेकर संसदीय चुनावों तक सब पर लागू होती है। अरुणाचल की राजधानी ईटानगर की एक रसूख वाली महिला कहती हैं, "मैं पिछली बार विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन तभी मैंने महसूस किया कि मैं किसी राष्ट्रीय पार्टी का टिकट पाने की पहली बाधा भी नहीं पार सकती हूं। मुझे इसके लिए बहुत बड़ी रकम अदा करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकती थी। इसलिए मैंने चुनाव लड़ने के अपने इस ख्वाब को भूल जाना ही बेहतर समझा।"
यहां तक हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में भी वही उम्मीदवार खड़ा हो सका जो बड़ी रकम खर्च करने में समर्थ था। राज्य में समाज के अलग-अलग तबकों के साथ बातचीत के आधार पर आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां की राजनीति किस कदर पैसों के ही इर्द-गिर्द घूमती है। यहां तक पंचायत चुनावों में भी जहां 400-500 से ज्यादा मतदाता नहीं है वही उम्मीदवार जीतने का ख्वाब देख सकता है जो कम से कम चार-पांच लाख रुपये खर्च करे। इसी तरह जिला परिषद के चुनाव में जिस उम्मीदवार के पास 35-40 लाख रुपये खर्च करने की कुव्वत नहीं है उसके जीत की कोई गुंजाइश नहीं बचती। यह अलग बात है कि इतने रुपये खर्च करने के बाद भी जीत की कोई गारंटी नहीं होती।
ईटानगर से सड़क के रास्ते से छह घंटे की दूरी पर स्थित एक जिला मुख्यालय जीरो के एक शिक्षक बताते हैं, "मैंने जिला परिषद चुनाव में जिस निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन किया था उसने भी 30 से 35 लाख रुपये के बीच खर्च किए लेकिन वह जीत नहीं सका क्योंकि कांग्रेस के उम्मीदवार ने उससे भी ज्यादा खर्च किए।" अरुणाचल के एक जिला परिषद में औसतन 2800 मतदाता ही हैं और ऐसे में एक उम्मीदवार का इतनी बड़ी राशि खर्च करना यहां की राजनीति में पैसों के खेल का सहज खुलासा करता है।
रोचक तथ्य यह है कि अरुणाचल में हर स्तर के चुनाव में उम्मीदवार को तकरीबन हर मतदाता को वोट के लिए पैसे देने पड़ते हैं। राज्य के एक खूबसूरत पर्वतीय गांव पोतिन के भाजपा समर्थक हिगियो तालो ने कहा, "चुनाव के दौरान ज्यादातर मतदाता उम्मीदवार से पैसे मिलने की उम्मीद रखते हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी वे उम्मीदवार से पैसे मांगते भी हैं। अगर हम उन्हें पैसे नहीं देंगे तो वह वोट नहीं देंगे और अगर दिया भी तो जानबूझ कर अपना वोट अमान्य करा देंगे।" तालो उम्मीदवारों और उसके समर्थकों की परेशानियों की और भी कई दास्तान सुनाते हैं। वह कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम किसी वोटर को हजार-दो हजार रुपये देकर आश्वस्त हो सकते हैं वह हमें ही वोट देगा। हम यह भी ध्यान रखना होता है कि उस वोटर को कोई अन्य उम्मीदवार हमसे ज्यादा पैसे न दे दे। लेकिन हमारी लाख कोशिशों के बावजूद भी ऐसा हो जाता है। अगर हमने किसी वोटर को दो हजार रुपये दिए हैं तो विपक्षी पार्टी उसे तीन हजार रुपये दे देगी। मैं ऐसे वाकयों के बारे में भी जानता हूं जब किसी प्रभावशाली मतदाता को बीस से तीस हजार रुपये भी दिए गए हैं। ऐसे में वोटर उसी को वोट देता है जो उसे सबसे ज्यादा पैसे दे।" इसका मतलब हुआ कि राज्य के 16 जिलों के 161 जिला परिषदों में सिर्फ विजयी उम्मीदवार द्वारा करीब 60 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं।
अरुणाचल में चुनाव के दौरान वोटरों को नगद भुगतान करना अब कोई रहस्य नहीं है और कोई भी इस सच से इनकार नहीं करता है। राज्य के एक प्रभावशाली नेता जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है स्वीकारोक्ति के साथ कहते हैं, "लोकसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को 35 से 45 करोड़ रुपये की विशाल राशि खर्च करनी पड़ती है और इसमें से ज्यादातर हिस्सा मतदाताओं को नगद भुगतान करने में जाता है।" वह कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को तीन से पांच करोड़ रुपये तक ढीले करने पड़ते हैं। कुछ उम्मीदवार तो दस करोड़ रुपये तक खर्च करते हैं।
अब इतनी बड़ी राशि मतदाताओं की जेब में जा रही तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि वहां के उम्मीदवारों की क्रय क्षमता निश्चित तौर पर बेहद प्रभावशाली है। लेकिन सवाल उठता है कि उम्मीदवारों के पास चुनाव में खर्च करने के लिए इतने पैसे आते कहां से हैं। विश्वविद्यालय के एक शिक्षक के अनुसार ये पैसे केंद्रीय सरकार की कृपा से आते हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा राज्य को बड़ी राशि आवंटित होती है जिसका बड़ा हिस्सा नेताओं की जेब भारी करता है और ये नेता इसका इस्तेमाल चुनाव में मतदाताओं को खरीदने में लगाते हैं। हालांकि राज्य के एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ जो चुनावों में पैसे के इस्तेमाल को स्वीकार करते हैं का कहना है कि केंद्र से मिलने वाली राशि का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा नौकरशाह और ठेकेदार ले उड़ते हैं और 10 से 15 फीसदी रकम ही नेताओं के पास आ पाती है। उनके अनुसार जो भी रकम नेताओं के पास जाती है वह उसका इस्तेमाल चुनावों में करते हैं और नतीजतन राज्य के विकास का काम पीछे हो जाता है।
राजीव गांधी विश्वविद्यालय के एक लेक्चरर मोजी रीबा कहते हैं कि अक्सर राज्य में उसी पार्टी की सरकार बनती है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज हो। उनकी बात बिल्कुल सही है क्योंकि जब दिल्ली में राजग की सरकार आई तो अरुणाचल में राज कर रही कांग्रेस सरकार के सभी सदस्य भाजपा में शामिल हो गए और इसी तरह 2007 में राज्य की लगभग सभी भाजपा विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। विश्वविद्यालय के एक अन्य शिक्षाविद कहते हैं, "यह सब और कुछ नहीं पैसे की ताकत का खेल है। केवल नेता ही आम जनता भी इस खेल में शामिल हैं और उन्हें ऐसा करने में कुछ भी गलत नहीं लगता।" कर्नाटक के मतदाता इस बात पर जरूर अपनी पीठ थपथपा सकते हैं वे अभी भी अरुणाचलियों के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं।
लेकिन एक राज्य ऐसा हैं जिससे चुनावों में पैसे लुटाने के मामले में कर्नाटक सहित देश के कई अन्य राज्य पीछे रह जाएंगे। वह राज्य जिसने चुपके से चुनावों में पैसे के इस्तेमाल के बेहिसाब बढ़ते चलन के मामले में अन्य राज्यों को पछाड़ दिया वह है भारत का उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश। इस राज्य में जिसे आम भारतीय देश के राज्य और उसकी राजधानियों की सूची को तलाशते वक्त ही याद रखते हैं हाल ही में पंचायत चुनाव हुए हैं और कुछ उप चुनाव अभी भी चल रहे हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस राज्य में जहां विदेशी तो क्या देशी पर्यटक भी विरले ही मिलते हैं आज की तारीख में चुनाव किसी योग्य उम्मीदवार के लिए दु:स्वप्न से कम नहीं रह गया है। यह स्थिति ग्राम पंचायत से लेकर संसदीय चुनावों तक सब पर लागू होती है। अरुणाचल की राजधानी ईटानगर की एक रसूख वाली महिला कहती हैं, "मैं पिछली बार विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन तभी मैंने महसूस किया कि मैं किसी राष्ट्रीय पार्टी का टिकट पाने की पहली बाधा भी नहीं पार सकती हूं। मुझे इसके लिए बहुत बड़ी रकम अदा करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकती थी। इसलिए मैंने चुनाव लड़ने के अपने इस ख्वाब को भूल जाना ही बेहतर समझा।"
यहां तक हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में भी वही उम्मीदवार खड़ा हो सका जो बड़ी रकम खर्च करने में समर्थ था। राज्य में समाज के अलग-अलग तबकों के साथ बातचीत के आधार पर आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां की राजनीति किस कदर पैसों के ही इर्द-गिर्द घूमती है। यहां तक पंचायत चुनावों में भी जहां 400-500 से ज्यादा मतदाता नहीं है वही उम्मीदवार जीतने का ख्वाब देख सकता है जो कम से कम चार-पांच लाख रुपये खर्च करे। इसी तरह जिला परिषद के चुनाव में जिस उम्मीदवार के पास 35-40 लाख रुपये खर्च करने की कुव्वत नहीं है उसके जीत की कोई गुंजाइश नहीं बचती। यह अलग बात है कि इतने रुपये खर्च करने के बाद भी जीत की कोई गारंटी नहीं होती।
ईटानगर से सड़क के रास्ते से छह घंटे की दूरी पर स्थित एक जिला मुख्यालय जीरो के एक शिक्षक बताते हैं, "मैंने जिला परिषद चुनाव में जिस निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन किया था उसने भी 30 से 35 लाख रुपये के बीच खर्च किए लेकिन वह जीत नहीं सका क्योंकि कांग्रेस के उम्मीदवार ने उससे भी ज्यादा खर्च किए।" अरुणाचल के एक जिला परिषद में औसतन 2800 मतदाता ही हैं और ऐसे में एक उम्मीदवार का इतनी बड़ी राशि खर्च करना यहां की राजनीति में पैसों के खेल का सहज खुलासा करता है।
रोचक तथ्य यह है कि अरुणाचल में हर स्तर के चुनाव में उम्मीदवार को तकरीबन हर मतदाता को वोट के लिए पैसे देने पड़ते हैं। राज्य के एक खूबसूरत पर्वतीय गांव पोतिन के भाजपा समर्थक हिगियो तालो ने कहा, "चुनाव के दौरान ज्यादातर मतदाता उम्मीदवार से पैसे मिलने की उम्मीद रखते हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी वे उम्मीदवार से पैसे मांगते भी हैं। अगर हम उन्हें पैसे नहीं देंगे तो वह वोट नहीं देंगे और अगर दिया भी तो जानबूझ कर अपना वोट अमान्य करा देंगे।" तालो उम्मीदवारों और उसके समर्थकों की परेशानियों की और भी कई दास्तान सुनाते हैं। वह कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम किसी वोटर को हजार-दो हजार रुपये देकर आश्वस्त हो सकते हैं वह हमें ही वोट देगा। हम यह भी ध्यान रखना होता है कि उस वोटर को कोई अन्य उम्मीदवार हमसे ज्यादा पैसे न दे दे। लेकिन हमारी लाख कोशिशों के बावजूद भी ऐसा हो जाता है। अगर हमने किसी वोटर को दो हजार रुपये दिए हैं तो विपक्षी पार्टी उसे तीन हजार रुपये दे देगी। मैं ऐसे वाकयों के बारे में भी जानता हूं जब किसी प्रभावशाली मतदाता को बीस से तीस हजार रुपये भी दिए गए हैं। ऐसे में वोटर उसी को वोट देता है जो उसे सबसे ज्यादा पैसे दे।" इसका मतलब हुआ कि राज्य के 16 जिलों के 161 जिला परिषदों में सिर्फ विजयी उम्मीदवार द्वारा करीब 60 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं।
अरुणाचल में चुनाव के दौरान वोटरों को नगद भुगतान करना अब कोई रहस्य नहीं है और कोई भी इस सच से इनकार नहीं करता है। राज्य के एक प्रभावशाली नेता जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है स्वीकारोक्ति के साथ कहते हैं, "लोकसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को 35 से 45 करोड़ रुपये की विशाल राशि खर्च करनी पड़ती है और इसमें से ज्यादातर हिस्सा मतदाताओं को नगद भुगतान करने में जाता है।" वह कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को तीन से पांच करोड़ रुपये तक ढीले करने पड़ते हैं। कुछ उम्मीदवार तो दस करोड़ रुपये तक खर्च करते हैं।
अब इतनी बड़ी राशि मतदाताओं की जेब में जा रही तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि वहां के उम्मीदवारों की क्रय क्षमता निश्चित तौर पर बेहद प्रभावशाली है। लेकिन सवाल उठता है कि उम्मीदवारों के पास चुनाव में खर्च करने के लिए इतने पैसे आते कहां से हैं। विश्वविद्यालय के एक शिक्षक के अनुसार ये पैसे केंद्रीय सरकार की कृपा से आते हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा राज्य को बड़ी राशि आवंटित होती है जिसका बड़ा हिस्सा नेताओं की जेब भारी करता है और ये नेता इसका इस्तेमाल चुनाव में मतदाताओं को खरीदने में लगाते हैं। हालांकि राज्य के एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ जो चुनावों में पैसे के इस्तेमाल को स्वीकार करते हैं का कहना है कि केंद्र से मिलने वाली राशि का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा नौकरशाह और ठेकेदार ले उड़ते हैं और 10 से 15 फीसदी रकम ही नेताओं के पास आ पाती है। उनके अनुसार जो भी रकम नेताओं के पास जाती है वह उसका इस्तेमाल चुनावों में करते हैं और नतीजतन राज्य के विकास का काम पीछे हो जाता है।
राजीव गांधी विश्वविद्यालय के एक लेक्चरर मोजी रीबा कहते हैं कि अक्सर राज्य में उसी पार्टी की सरकार बनती है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज हो। उनकी बात बिल्कुल सही है क्योंकि जब दिल्ली में राजग की सरकार आई तो अरुणाचल में राज कर रही कांग्रेस सरकार के सभी सदस्य भाजपा में शामिल हो गए और इसी तरह 2007 में राज्य की लगभग सभी भाजपा विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। विश्वविद्यालय के एक अन्य शिक्षाविद कहते हैं, "यह सब और कुछ नहीं पैसे की ताकत का खेल है। केवल नेता ही आम जनता भी इस खेल में शामिल हैं और उन्हें ऐसा करने में कुछ भी गलत नहीं लगता।" कर्नाटक के मतदाता इस बात पर जरूर अपनी पीठ थपथपा सकते हैं वे अभी भी अरुणाचलियों के स्तर तक नहीं पहुंचे हैं।
Tuesday, June 24, 2008
मिस्टर प्राइमिनिस्टर बड़ा मुद्दा क्या है, करार या महंगाई?
पिछले साल एक समाचार पत्र द्वारा आयोजित किए गए सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी संरक्षक और मुख्य समर्थक कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कहा था कि संप्रग सरकार किसी एक मामले को लेकर चलने वाली सरकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे अमेरिका के साथ परमाणु करार को किसी तर्कसंगत अंत तक न पहुंचा पाने के गम के साथ भी रहने को तैयार हैं। तब यह महसूस किया गया करार को आईएईए में ले जाने को लेकर चली उबाऊ व अंतहीन बहस और इस पर बनी संप्रग-वाम समन्वय समिति मजह दिखावे भर के लिए है।
हालांकि मनमोहन सिंह निश्चित तौर पर ऐसी सोच नहीं रखते थे। अब ऐसी स्थिति आ गई है कि संप्रग सरकार का भविष्य अनिश्चितता के तराजू में झूल रहा है और इसे बचाने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। यह सोचने वाली बात है कि ऐसी स्थिति आई क्यों? क्या प्रधानमंत्री को यह अचानक महसूस होने लगा कि वह अपने कार्यकाल को यादगार बनाने का एक अहम और आखिरी मौका चूक रहे हैं, क्या हमारे प्रधानमंत्री करार न हो पाने के कारण अगले महीने होने वाले जी आठ सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के सामने शर्मिंदा होने से बचना चाहते हैं? या क्या वह इस बहाने महंगाई की बढ़ती मार को थामने में सरकार की असफलता को ढांकना चाहते हैं?
इन सवालों जवाब ढूंढने की कोशिश करने से पहले उस वजह को जानना जरूरी है जो प्रधानमंत्री और वामदलों के बीच ताजा तकरार की वजह है। यह याद रखने वाली बात है कि भारत-अमेरिका रणनीतिक समझौता संप्रग के घटक दलों और वामदलों के बीच सरकार बनाने से पहले वर्ष 2004 की गर्मियों में हुए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था। संयोगवश यह 2004 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के घोषणापत्र का भी हिस्सा नहीं था। यह तय है कि अगर कांग्रेस उस वक्त इसे न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल करने पर जोर देती तो उसे इतनी आसानी से सत्ता नसीब नहीं होने वाली थी। इसलिए जुलाई, 2005 में अपने अमेरिकी दौरे के वक्त जब प्रधानमंत्री ने इस साझेदारी को देश के सामने रखा तो वामदल क्रोधित हो गए।
यह कोई गुप्त रहस्य नहीं है कि वामदल पूंजीवादी और साम्राज्यवादी माने जाने वाले अमेरिका के साथ वैचारिक मतभेद रखते हैं। साथ ही जार्ज बुश का अमेरिकी राष्ट्रपति होना उनके लिए आग में घी डालने का काम करता है। बुश वामपंथियों के बीच सबसे ज्यादा नफरत किए जाने वाले शख्स हैं। वामपंथी ही क्या दुनिया के अन्य राजनीतिक मतों वाले लोगों में बुश कोई लोकप्रिय व्यक्ति नहीं हैं।
तब वामपंथियों को यह भरोसा देकर शांत किया गया कि संप्रग सरकार अमेरिका के साथ समझौते को लेकर जो भी कदम उठाएगी उसमें पूरी पारदर्शिता बरती जाएगी और इसके लिए उन्हें भी विश्वास में लिया जाएगा। वामपंथियों को यह भी कहा गया था कि उनकी सहमति के बाद ही सरकार इस मामले में आगे बढ़ेगी। अमेरिकियों को इस करार के लिए राजी कर 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद से अंतरराष्ट्रीय परमाणु बिरादरी से अलग-थलग पड़े भारत को मुख्य धारा में लौटाने के लिए काफी प्रशंसा बटोर चुके मनमोहन सिंह ने उस वक्त कई कदम उठाए। भारतीय परमाणु संयंत्रों को नागरिक और रक्षा इस्तेमाल वाले संयंत्रों के रूप में विभाजित करना उनके इन्हीं कदमों में से एक था। उनके ऐसे कदमों की काफी सराहना हुई लेकिन वामदलों के साथ-साथ वैज्ञानिकों और नाभकीय प्रौद्योगविदों के बीच सरकार के कदमों के विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।
प्रधानमंत्री हालांकि उन्हें यह कहकर आंशिक रूप से समझा पाने में सफल रहे कि सरकार किसी भी सूरत में भारतीय हितों के साथ समझौता नहीं करेगी। याद कीजिए जब यह सब घटित हो रहा था तब भी वामपंथी लगातार कह रहे थे कि करार न्यूनतम साझा कार्यक्रम की परिधि से बाहर की बात है। साथ ही उन्हें अमेरिकी मंशा पर भी गहरा शक था। तब तक मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी करार के विरोध में उतर चुकी थी। हालांकि पार्टी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकती थी उनके विरोध का आधार भी वही है जो वामपंथियों का है। सरकार का यह दावा कि करार से भारत की परमाणु ऊर्जा की क्षमता बढ़ेगी कमजोर होने लगी। भाजपा के अरुण सौरी से लेकर रणनीतिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चलाने और कई नाभिकीय वैज्ञानिकों द्वारा ऊर्जा जरूरतों और नाभिकीय ऊर्जा की मौजूदा स्थिति पर वृहद शोध के आधार पर लिखे गए कई आलेखों ने सरकार के दावे को कड़ी चुनौती दी। इन लोगों ने अमेरिका की मंशा पर भी सवाल उठाए साथ इस बात पर भी आपत्ति जताई कि करार पर अपारदर्शी तरीके से आगे बढ़ा जा रहा है। करार पर कई सवाल और संदेह उठे जो आज भी अनुत्तरित है।
इसके बावजूद प्रधानमंत्री अमेरिका उन्मुखी मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रभाव में यह कहते रहे कि करार भारत की भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के लिए बेहद जरूरी है और इसे टाला नहीं जा सकता है। करार से जुड़े सेफगार्ड को अंतिम स्वरूप देने के लिए आईएईए जाने की बात पर भी वामदल अनिच्छा के साथ कुछ शर्र्तो पर सहमत हुए। इन्हीं में एक मुख्य शर्त यह थी कि जब तक करार पर आमसहमति नहीं बन जाती है सरकार आगे नहीं बढ़ेगी।
लेकिन अब हम देख रहे हैं कि वामपंथियों, भाजपा नेताओं और वैज्ञानिक समुदाय के कई लोगों की असहमति के बावजूद प्रधानमंत्री ने करार पर आगे बढ़ने का फैसला कर खुद के साथ-साथ अपनी सरकार के भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। इस कदम से वामदलों का प्रधानमंत्री पर जो थोड़ा-बहुत विश्वास था वह भी खत्म हो गया है। प्रधानमंत्री और वामपंथियों के बीच विश्वास की यही कमी दोनों धड़ों के बीच मौजूदा तकरार की सबसे बड़ी वजह है और इससे कांग्रेस और संप्रग की स्थिति कमजोर हुई ही है साथ ही इनकी भविष्य की संभावनाओं को भी गहरा धक्का लगा है।
आखिर प्रधानमंत्री के इस कदम के पीछे क्या वजह हो सकती है। वैसे तो यह कहना उचित नहीं होगा कि वह व्यक्तिगत ख्याति के लिए ऐसा कर रहे हैं लेकिन उनके इस कदम से उस तर्क को बल मिलता है कि करार के दो मुख्य कलाकार मनमोहन सिंह और जार्ज डब्ल्यू बुश इसके माध्यम से अपने-अपने कार्यकाल को यादगार बनाना चाहते हैं। जबकि बुश पहले से ही एक महत्वहीन राष्ट्रपति बन चुके हैं, अपने हालिया कदमों से मनमोहन ने भी यह सुनिश्चित कर दिया कि वह भी एक महत्वहीन प्रधानमंत्री हैं जिनके लिए संप्रग के दोबारा सत्ता में आने के बावजूद फिर प्रधानमंत्री बन पाना बेहद मुश्किल है।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्यों दो महान लोकतांत्रिक देश एक ऐसे करार पर आगे बढ़े जिसे भारतीय संसद में तो बहुमत प्राप्त नहीं ही है साथ अमेरिका में भी इस मामले पर बहुमत संदेहास्पद है। क्या हम इस मसले पर दस महीने और इंतजार नहीं सकते जब दोनों ही देशों में नई सरकारें होंगी और वे इस पर बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में होंगी। और क्या मनमोहन अपने उस बयान पर कायम नहीं रह सकते जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार किसी एक मुद्दे के लिए ही नहीं है? फिलहाल महंगाई नाम का बड़ा मुद्दा या यूं कहें चुनौती उनके सामने मुंह बाए खड़ी है। अगर वह इस पर काबू पाने में सफल रहते हैं तो उनका कार्यकाल ज्यादा प्रशंसनीय कहलाएगा और उन्हें एक यादगार प्रधानमंत्री के तौर पर और भी ज्यादा संख्या में लोग याद रखेंगे।
हालांकि मनमोहन सिंह निश्चित तौर पर ऐसी सोच नहीं रखते थे। अब ऐसी स्थिति आ गई है कि संप्रग सरकार का भविष्य अनिश्चितता के तराजू में झूल रहा है और इसे बचाने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। यह सोचने वाली बात है कि ऐसी स्थिति आई क्यों? क्या प्रधानमंत्री को यह अचानक महसूस होने लगा कि वह अपने कार्यकाल को यादगार बनाने का एक अहम और आखिरी मौका चूक रहे हैं, क्या हमारे प्रधानमंत्री करार न हो पाने के कारण अगले महीने होने वाले जी आठ सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के सामने शर्मिंदा होने से बचना चाहते हैं? या क्या वह इस बहाने महंगाई की बढ़ती मार को थामने में सरकार की असफलता को ढांकना चाहते हैं?
इन सवालों जवाब ढूंढने की कोशिश करने से पहले उस वजह को जानना जरूरी है जो प्रधानमंत्री और वामदलों के बीच ताजा तकरार की वजह है। यह याद रखने वाली बात है कि भारत-अमेरिका रणनीतिक समझौता संप्रग के घटक दलों और वामदलों के बीच सरकार बनाने से पहले वर्ष 2004 की गर्मियों में हुए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था। संयोगवश यह 2004 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के घोषणापत्र का भी हिस्सा नहीं था। यह तय है कि अगर कांग्रेस उस वक्त इसे न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल करने पर जोर देती तो उसे इतनी आसानी से सत्ता नसीब नहीं होने वाली थी। इसलिए जुलाई, 2005 में अपने अमेरिकी दौरे के वक्त जब प्रधानमंत्री ने इस साझेदारी को देश के सामने रखा तो वामदल क्रोधित हो गए।
यह कोई गुप्त रहस्य नहीं है कि वामदल पूंजीवादी और साम्राज्यवादी माने जाने वाले अमेरिका के साथ वैचारिक मतभेद रखते हैं। साथ ही जार्ज बुश का अमेरिकी राष्ट्रपति होना उनके लिए आग में घी डालने का काम करता है। बुश वामपंथियों के बीच सबसे ज्यादा नफरत किए जाने वाले शख्स हैं। वामपंथी ही क्या दुनिया के अन्य राजनीतिक मतों वाले लोगों में बुश कोई लोकप्रिय व्यक्ति नहीं हैं।
तब वामपंथियों को यह भरोसा देकर शांत किया गया कि संप्रग सरकार अमेरिका के साथ समझौते को लेकर जो भी कदम उठाएगी उसमें पूरी पारदर्शिता बरती जाएगी और इसके लिए उन्हें भी विश्वास में लिया जाएगा। वामपंथियों को यह भी कहा गया था कि उनकी सहमति के बाद ही सरकार इस मामले में आगे बढ़ेगी। अमेरिकियों को इस करार के लिए राजी कर 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद से अंतरराष्ट्रीय परमाणु बिरादरी से अलग-थलग पड़े भारत को मुख्य धारा में लौटाने के लिए काफी प्रशंसा बटोर चुके मनमोहन सिंह ने उस वक्त कई कदम उठाए। भारतीय परमाणु संयंत्रों को नागरिक और रक्षा इस्तेमाल वाले संयंत्रों के रूप में विभाजित करना उनके इन्हीं कदमों में से एक था। उनके ऐसे कदमों की काफी सराहना हुई लेकिन वामदलों के साथ-साथ वैज्ञानिकों और नाभकीय प्रौद्योगविदों के बीच सरकार के कदमों के विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।
प्रधानमंत्री हालांकि उन्हें यह कहकर आंशिक रूप से समझा पाने में सफल रहे कि सरकार किसी भी सूरत में भारतीय हितों के साथ समझौता नहीं करेगी। याद कीजिए जब यह सब घटित हो रहा था तब भी वामपंथी लगातार कह रहे थे कि करार न्यूनतम साझा कार्यक्रम की परिधि से बाहर की बात है। साथ ही उन्हें अमेरिकी मंशा पर भी गहरा शक था। तब तक मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी करार के विरोध में उतर चुकी थी। हालांकि पार्टी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकती थी उनके विरोध का आधार भी वही है जो वामपंथियों का है। सरकार का यह दावा कि करार से भारत की परमाणु ऊर्जा की क्षमता बढ़ेगी कमजोर होने लगी। भाजपा के अरुण सौरी से लेकर रणनीतिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चलाने और कई नाभिकीय वैज्ञानिकों द्वारा ऊर्जा जरूरतों और नाभिकीय ऊर्जा की मौजूदा स्थिति पर वृहद शोध के आधार पर लिखे गए कई आलेखों ने सरकार के दावे को कड़ी चुनौती दी। इन लोगों ने अमेरिका की मंशा पर भी सवाल उठाए साथ इस बात पर भी आपत्ति जताई कि करार पर अपारदर्शी तरीके से आगे बढ़ा जा रहा है। करार पर कई सवाल और संदेह उठे जो आज भी अनुत्तरित है।
इसके बावजूद प्रधानमंत्री अमेरिका उन्मुखी मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रभाव में यह कहते रहे कि करार भारत की भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के लिए बेहद जरूरी है और इसे टाला नहीं जा सकता है। करार से जुड़े सेफगार्ड को अंतिम स्वरूप देने के लिए आईएईए जाने की बात पर भी वामदल अनिच्छा के साथ कुछ शर्र्तो पर सहमत हुए। इन्हीं में एक मुख्य शर्त यह थी कि जब तक करार पर आमसहमति नहीं बन जाती है सरकार आगे नहीं बढ़ेगी।
लेकिन अब हम देख रहे हैं कि वामपंथियों, भाजपा नेताओं और वैज्ञानिक समुदाय के कई लोगों की असहमति के बावजूद प्रधानमंत्री ने करार पर आगे बढ़ने का फैसला कर खुद के साथ-साथ अपनी सरकार के भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। इस कदम से वामदलों का प्रधानमंत्री पर जो थोड़ा-बहुत विश्वास था वह भी खत्म हो गया है। प्रधानमंत्री और वामपंथियों के बीच विश्वास की यही कमी दोनों धड़ों के बीच मौजूदा तकरार की सबसे बड़ी वजह है और इससे कांग्रेस और संप्रग की स्थिति कमजोर हुई ही है साथ ही इनकी भविष्य की संभावनाओं को भी गहरा धक्का लगा है।
आखिर प्रधानमंत्री के इस कदम के पीछे क्या वजह हो सकती है। वैसे तो यह कहना उचित नहीं होगा कि वह व्यक्तिगत ख्याति के लिए ऐसा कर रहे हैं लेकिन उनके इस कदम से उस तर्क को बल मिलता है कि करार के दो मुख्य कलाकार मनमोहन सिंह और जार्ज डब्ल्यू बुश इसके माध्यम से अपने-अपने कार्यकाल को यादगार बनाना चाहते हैं। जबकि बुश पहले से ही एक महत्वहीन राष्ट्रपति बन चुके हैं, अपने हालिया कदमों से मनमोहन ने भी यह सुनिश्चित कर दिया कि वह भी एक महत्वहीन प्रधानमंत्री हैं जिनके लिए संप्रग के दोबारा सत्ता में आने के बावजूद फिर प्रधानमंत्री बन पाना बेहद मुश्किल है।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्यों दो महान लोकतांत्रिक देश एक ऐसे करार पर आगे बढ़े जिसे भारतीय संसद में तो बहुमत प्राप्त नहीं ही है साथ अमेरिका में भी इस मामले पर बहुमत संदेहास्पद है। क्या हम इस मसले पर दस महीने और इंतजार नहीं सकते जब दोनों ही देशों में नई सरकारें होंगी और वे इस पर बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में होंगी। और क्या मनमोहन अपने उस बयान पर कायम नहीं रह सकते जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार किसी एक मुद्दे के लिए ही नहीं है? फिलहाल महंगाई नाम का बड़ा मुद्दा या यूं कहें चुनौती उनके सामने मुंह बाए खड़ी है। अगर वह इस पर काबू पाने में सफल रहते हैं तो उनका कार्यकाल ज्यादा प्रशंसनीय कहलाएगा और उन्हें एक यादगार प्रधानमंत्री के तौर पर और भी ज्यादा संख्या में लोग याद रखेंगे।
Wednesday, June 18, 2008
क्या भाजपा के रुख से अंदरूनी लोकतंत्र को बढ़ावा मिलेगा?
गिरीश निकम का यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा हुआ है, जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमित के साथ यहां प्रकाशित कर रहा हूं। इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें
गिरीश निकम की कलम से
भारतीय जनता पार्टी द्वारा बिहार में उपजी अंदरूनी समस्या के निदान के लिए उठाया गया कदम दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने के संदर्भ को लेकर हाल फिलहाल की सबसे उल्लेखनीय प्रगति है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार में पार्टी विधायक दल के नेता और उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का भविष्य तय करने के लिए राज्य के अपने विधायकों से गुप्त मतदान करने को कहा। भाजपा द्वारा अपने एक बेहद महत्वपूर्ण नेता का भाग्य निर्धारण करने के लिए इस तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का चुनाव करना निसंदेह सराहनीय कदम है।
हालांकि भाजपा के अंदर सुशील मोदी का दर्जा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में कम है लेकिन इसके बावजूद वह नरेंद्र मोदी की ही तरह एक दिग्गज ओबीसी नेता हैं और बिहार की राजनीति के दिग्गजों लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार के समकालीन भी हैं। इसके साथ ही सुशील मोदी राज्य में पार्टी का सबसे ज्यादा जाना-पहचाना चेहरा भी हैं। हालांकि पिछले दिनों नीतीश मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद से वह अपनी पार्टी के कुछ सवर्ण विधायकों के साथ टकराव की स्थिति में आ गए। इन विधायकों के अनुसार मंत्रीमंडल से उनकी छुट्टी के पीछे कहीं न कहीं सुशील मोदी का ही हाथ है और इसी के फलस्वरूप वे मोदी को उप मुख्यमंत्री पद से उतरवाने की जुगत में भिड़ गए।
शुरुआत में इस मामले पर टालमटोल का रुख अपनाने के बाद भाजपा आलाकमान ने राज्य के अपने सभी विधायकों को दिल्ली तलब किया। जब केंद्रीय नेतृत्व को यह आभास हुआ कि ये विधायक सीधे तौर पर अपने मन की बात नहीं कह पाएंगे तो उसने गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाई। हालांकि इस गुप्त मतदान के नतीजे को सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन यह खबर बाहर आई कि मोदी को अब भी अपने विधायकों का मामूली ही सही लेकिन बहुमत प्राप्त है। इस गुप्त मतदान के नतीजे के आधार पर मोदी को अपना कार्यभार संभाले रखने के लिए हरी झंडी मिल गई और आलाकमान को उम्मीद है कि राज्य में बगावत की आवाज अब शांत हो जाएगी। वैसे इसके अलावा एक और बड़ा कारण है जिस वजह से भाजपा मोदी का पल्लू नहीं छोड़ सकती है। मोदी बिहार के बनिया मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और बिहार में यही एकमात्र ऐसा मतदाता वर्ग है जो पिछले एक दशक से भी अधिक समय से पूरी तरह भाजपा के साथ है। इस वजह भाजपा मोदी को दरकिनार कर इतना बड़ा जनाधार खोने की जोखिम नहीं उठा सकती। अब भाजपा आलाकमान द्वारा राज्य विधायकों के बीच कराया गया यह युद्धविराम कब तक जारी रहता है यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इन सब के बावजूद अनजाने में ही सही भाजपा ने अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है। इस बारे में अन्य दल बातें तो जरूर करते हैं लेकिन शायद ही कभी अमल में लाते हैं।
याद कीजिए कुछ ही हफ्ते पहले कांग्रेस के उत्तराधिकारी राहुल गांधी ने अंदरूनी राजनीति में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर जोर देकर अपनी राय रखी थी। वास्तव में वह पार्टी मीटिंगों में भी यह बात उठाते रहे हैं। कांग्रेस पिछली बार पार्टी में लोकतंत्र का साक्षी तब बना था जब सोनिया गांधी और जीतेंद्र प्रसाद के बीच पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ था और इसमें उस वक्त नौसिखिया मानी जानी वाली सोनिया ने शानदार जीत दर्ज की थी। लेकिन इसके बाद से अब तक किसी ने उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखाई और यहां तक कि राज्यों में कांग्रेस मुख्यमंत्री के चुनाव से लेकर विधायक दलों के नेता और अध्यक्ष तक का चुनाव उन्हीं के इशारे से होता है जिसे तथाकथित आम राय के नाम से जाना जाता है।
यहां तक कि पार्टी के अंदर लोकतंत्र के मामले पर भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं रहा है। पार्टी के सबसे ताजा-तरीन मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा भी यह दावा नहीं कर सकते कि वह पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हैं। वास्तव में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को भी बिल्कुल एकतरफा तरीके से प्रधानमंत्री पद का अपना अगला उम्मीदवार घोषित कर दिया। भाजपा के इस फैसले के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के अन्य दलों के सामने भी आडवाणी को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा। इसी तरह पार्टी ने मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी बिना विधायकों की राय जाने गद्दी से उतार दिया और एक बाद फिर बिना विधायकों की रायशुमारी के शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया।
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में इस प्रकार की घटनाओं का अंतहीन सिलसिला रहा है। आज की तारीख में सिर्फ लेफ्ट पार्टियों खासकर सीपीआई (एम) के भीतर ही लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और फलफूल भी रही है। सीपीएम के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनाने के मुद्दे को लेकर पार्टी ने जो रुख अपनाया कोई अन्य राजनीतिक पार्टी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकती है। 1996 में जब बसु अपने राजनैतिक कैरियर के चरम पर थे तब पोलित ब्यूरो के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके दोनों ही नेता पार्टी पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति को मनाने में असफल रहे और नतीजतन बसु प्रधानमंत्री नहीं बन सके। यह पार्टी के अंदर मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही नतीजा था।
तब पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति दोनों ने फैसला लिया था कि यह इस बात के लिए उपयुक्त समय और माहौल नहीं है कि संयुक्त मोर्चा द्वारा बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए। पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं बसु और सुरजीत के पास बहुमत के निर्णय को स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था और उन्होंने बिना किसी शोरशराबे के इसे स्वीकार भी किया।
यह ऐसी घटना है जिसके बारे में भाजपा और कांग्रेस के संदर्भ में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जहां तक व्यक्ति केंद्रित पार्टियों मसलन समाजवादी पार्टी, तेलगु देशम, द्रमुक व अन्नाद्रमुक आदि का सवाल है तो वहां ऐसा होना असंभव से कम नहीं होगा।
इसलिए भाजपा द्वारा बिहार में सुशील कुमार मोदी के भविष्य के लिए गुप्त मतदान करवाना खासा रोचक है। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा ने यह उपाय सिर्फ एक बार के लिए आजमाया है या वह इस लोकतांत्रिक तरीके का अनुसरण अहम पदों पर काबिज होने वाले व्यक्तियों के चुनाव के लिए आगे भी करेगी। यहां तक भाजपा आलाकमान भी इसे अपने लिए बाध्यकारी नहीं बनाना चाहता। इसके पीछे के कारण स्पष्ट हैं। ऐसा नहीं है कि पार्टी हर राज्य में इस तरीके को अपना पाएगी क्योंकि सब जगह की क्षेत्रीय स्थितियां और परिस्थितियां भिन्न होगी।
हालांकि दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली के अभाव के पीछे की मूल वजह बिल्कुल अलग है। मुख्य धारा की किसी भी पार्टी ने अपने कैडरों और नेताओं में लोकतांत्रिक समझ को जगाने की कोशिश नहीं की है। इसके बावजूद यह तथ्य चौंकाने और रोमांचित करने वाला है कि यह यही नेता और कैडर जो अपनी पार्टी के संरक्षण वादी संस्कृति के अधीन होते हैं और जिनके अंदर अंदरूनी लोकतंत्र की जागृति नहीं होती है चुनावों में अपनी जीत और हार को बड़े ही विनम्र तरीके से स्वीकार करते हैं। लोकसभा, विधानसभा या पंचायत चुनावों में इन नेताओं की हार के पीछे और भी तमाम तरह के कारण मौजूद होते हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह कभी देखने में नहीं आया कि इन पराजित नेताओं द्वारा विजयी पक्ष को सत्ता हस्तांतरण में कोई खास दिक्कत आती हो। तब क्या वह है कि पार्टियां अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने में हिचकिचाहट दिखाती है? अब भाजपा ने रास्ता दिखाया है तो हम उम्मीद कर सकते हैं मुख्य धारा की सभी पार्टियां अंदरूनी लोकतंत्र को मजबूत बनाने की ओर कदम उठाएगी।
गिरीश निकम की कलम से
भारतीय जनता पार्टी द्वारा बिहार में उपजी अंदरूनी समस्या के निदान के लिए उठाया गया कदम दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने के संदर्भ को लेकर हाल फिलहाल की सबसे उल्लेखनीय प्रगति है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार में पार्टी विधायक दल के नेता और उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का भविष्य तय करने के लिए राज्य के अपने विधायकों से गुप्त मतदान करने को कहा। भाजपा द्वारा अपने एक बेहद महत्वपूर्ण नेता का भाग्य निर्धारण करने के लिए इस तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का चुनाव करना निसंदेह सराहनीय कदम है।
हालांकि भाजपा के अंदर सुशील मोदी का दर्जा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में कम है लेकिन इसके बावजूद वह नरेंद्र मोदी की ही तरह एक दिग्गज ओबीसी नेता हैं और बिहार की राजनीति के दिग्गजों लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार के समकालीन भी हैं। इसके साथ ही सुशील मोदी राज्य में पार्टी का सबसे ज्यादा जाना-पहचाना चेहरा भी हैं। हालांकि पिछले दिनों नीतीश मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद से वह अपनी पार्टी के कुछ सवर्ण विधायकों के साथ टकराव की स्थिति में आ गए। इन विधायकों के अनुसार मंत्रीमंडल से उनकी छुट्टी के पीछे कहीं न कहीं सुशील मोदी का ही हाथ है और इसी के फलस्वरूप वे मोदी को उप मुख्यमंत्री पद से उतरवाने की जुगत में भिड़ गए।
शुरुआत में इस मामले पर टालमटोल का रुख अपनाने के बाद भाजपा आलाकमान ने राज्य के अपने सभी विधायकों को दिल्ली तलब किया। जब केंद्रीय नेतृत्व को यह आभास हुआ कि ये विधायक सीधे तौर पर अपने मन की बात नहीं कह पाएंगे तो उसने गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाई। हालांकि इस गुप्त मतदान के नतीजे को सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन यह खबर बाहर आई कि मोदी को अब भी अपने विधायकों का मामूली ही सही लेकिन बहुमत प्राप्त है। इस गुप्त मतदान के नतीजे के आधार पर मोदी को अपना कार्यभार संभाले रखने के लिए हरी झंडी मिल गई और आलाकमान को उम्मीद है कि राज्य में बगावत की आवाज अब शांत हो जाएगी। वैसे इसके अलावा एक और बड़ा कारण है जिस वजह से भाजपा मोदी का पल्लू नहीं छोड़ सकती है। मोदी बिहार के बनिया मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और बिहार में यही एकमात्र ऐसा मतदाता वर्ग है जो पिछले एक दशक से भी अधिक समय से पूरी तरह भाजपा के साथ है। इस वजह भाजपा मोदी को दरकिनार कर इतना बड़ा जनाधार खोने की जोखिम नहीं उठा सकती। अब भाजपा आलाकमान द्वारा राज्य विधायकों के बीच कराया गया यह युद्धविराम कब तक जारी रहता है यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इन सब के बावजूद अनजाने में ही सही भाजपा ने अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है। इस बारे में अन्य दल बातें तो जरूर करते हैं लेकिन शायद ही कभी अमल में लाते हैं।
याद कीजिए कुछ ही हफ्ते पहले कांग्रेस के उत्तराधिकारी राहुल गांधी ने अंदरूनी राजनीति में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर जोर देकर अपनी राय रखी थी। वास्तव में वह पार्टी मीटिंगों में भी यह बात उठाते रहे हैं। कांग्रेस पिछली बार पार्टी में लोकतंत्र का साक्षी तब बना था जब सोनिया गांधी और जीतेंद्र प्रसाद के बीच पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ था और इसमें उस वक्त नौसिखिया मानी जानी वाली सोनिया ने शानदार जीत दर्ज की थी। लेकिन इसके बाद से अब तक किसी ने उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखाई और यहां तक कि राज्यों में कांग्रेस मुख्यमंत्री के चुनाव से लेकर विधायक दलों के नेता और अध्यक्ष तक का चुनाव उन्हीं के इशारे से होता है जिसे तथाकथित आम राय के नाम से जाना जाता है।
यहां तक कि पार्टी के अंदर लोकतंत्र के मामले पर भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं रहा है। पार्टी के सबसे ताजा-तरीन मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा भी यह दावा नहीं कर सकते कि वह पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हैं। वास्तव में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को भी बिल्कुल एकतरफा तरीके से प्रधानमंत्री पद का अपना अगला उम्मीदवार घोषित कर दिया। भाजपा के इस फैसले के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के अन्य दलों के सामने भी आडवाणी को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा। इसी तरह पार्टी ने मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी बिना विधायकों की राय जाने गद्दी से उतार दिया और एक बाद फिर बिना विधायकों की रायशुमारी के शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया।
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में इस प्रकार की घटनाओं का अंतहीन सिलसिला रहा है। आज की तारीख में सिर्फ लेफ्ट पार्टियों खासकर सीपीआई (एम) के भीतर ही लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और फलफूल भी रही है। सीपीएम के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनाने के मुद्दे को लेकर पार्टी ने जो रुख अपनाया कोई अन्य राजनीतिक पार्टी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकती है। 1996 में जब बसु अपने राजनैतिक कैरियर के चरम पर थे तब पोलित ब्यूरो के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके दोनों ही नेता पार्टी पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति को मनाने में असफल रहे और नतीजतन बसु प्रधानमंत्री नहीं बन सके। यह पार्टी के अंदर मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही नतीजा था।
तब पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति दोनों ने फैसला लिया था कि यह इस बात के लिए उपयुक्त समय और माहौल नहीं है कि संयुक्त मोर्चा द्वारा बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए। पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं बसु और सुरजीत के पास बहुमत के निर्णय को स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था और उन्होंने बिना किसी शोरशराबे के इसे स्वीकार भी किया।
यह ऐसी घटना है जिसके बारे में भाजपा और कांग्रेस के संदर्भ में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जहां तक व्यक्ति केंद्रित पार्टियों मसलन समाजवादी पार्टी, तेलगु देशम, द्रमुक व अन्नाद्रमुक आदि का सवाल है तो वहां ऐसा होना असंभव से कम नहीं होगा।
इसलिए भाजपा द्वारा बिहार में सुशील कुमार मोदी के भविष्य के लिए गुप्त मतदान करवाना खासा रोचक है। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा ने यह उपाय सिर्फ एक बार के लिए आजमाया है या वह इस लोकतांत्रिक तरीके का अनुसरण अहम पदों पर काबिज होने वाले व्यक्तियों के चुनाव के लिए आगे भी करेगी। यहां तक भाजपा आलाकमान भी इसे अपने लिए बाध्यकारी नहीं बनाना चाहता। इसके पीछे के कारण स्पष्ट हैं। ऐसा नहीं है कि पार्टी हर राज्य में इस तरीके को अपना पाएगी क्योंकि सब जगह की क्षेत्रीय स्थितियां और परिस्थितियां भिन्न होगी।
हालांकि दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली के अभाव के पीछे की मूल वजह बिल्कुल अलग है। मुख्य धारा की किसी भी पार्टी ने अपने कैडरों और नेताओं में लोकतांत्रिक समझ को जगाने की कोशिश नहीं की है। इसके बावजूद यह तथ्य चौंकाने और रोमांचित करने वाला है कि यह यही नेता और कैडर जो अपनी पार्टी के संरक्षण वादी संस्कृति के अधीन होते हैं और जिनके अंदर अंदरूनी लोकतंत्र की जागृति नहीं होती है चुनावों में अपनी जीत और हार को बड़े ही विनम्र तरीके से स्वीकार करते हैं। लोकसभा, विधानसभा या पंचायत चुनावों में इन नेताओं की हार के पीछे और भी तमाम तरह के कारण मौजूद होते हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह कभी देखने में नहीं आया कि इन पराजित नेताओं द्वारा विजयी पक्ष को सत्ता हस्तांतरण में कोई खास दिक्कत आती हो। तब क्या वह है कि पार्टियां अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने में हिचकिचाहट दिखाती है? अब भाजपा ने रास्ता दिखाया है तो हम उम्मीद कर सकते हैं मुख्य धारा की सभी पार्टियां अंदरूनी लोकतंत्र को मजबूत बनाने की ओर कदम उठाएगी।
Tuesday, June 17, 2008
बेईमानी आधी-आधी
काफी दिनों के बाद अपने गृह प्रदेश जाने का अवसर मिला तो मन उत्साह से भर उठा। दिल में उमंगें और तरह-तरह के भाव लिए घर की तरफ चल पड़ा। रास्ते भर अपने प्रदेश व अपने लोगों के बारे में ही सोचता रहा। सोचता रहा कि काफी कुछ बदला-बदला सा नजर आएगा। लेकिन मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरा सामना ऐसे वाकये से होगा, जिसे मैं लंबे समय तक नहीं भूल सकूंगा।
स्टेशन पर उतरते ही जल्दी-जल्दी सामान समेटा और बाहर आकर बस का इंतजार करने लगा। बस में बैठते ही कंडक्टर की आवाज आई, कोई भी भारी सामान ऐसे नहीं ले जा सकता, उसका किराया अलग से देना होगा। सभी सवारियां अपने-अपने सामान की तरफ देखने लगीं। तभी एक युवक ढेर सारा बिजली और लकड़ी का सामान लेकर आया और बड़े ही अधिकार भाव से दोनों तरफ की सीटों के बीच खाली जगह पर रख दिया और निश्चिंत भाव से बैठ गया। उसे यह भी सोचने की फुर्सत नहीं थी कि उसके सामान से यात्रियों को कितनी परेशानी हो रही थी।
थोड़ी ही देर में कंडक्टर महोदय आए और पान की पीक को खिड़की के बाहर बीच सड़क पर थूक कर युवक से मुखातिब होते हुए उसका गंतव्य स्थल पूछा। युवक के बताने पर उन्होंने कहा कि इसका एक सवारी के बराबर किराया लगेगा। इतना कहकर कंडक्टर ने नकद की आस में युवक की तरफ हाथ बढ़ाया। लेकिन युवक ने साफ मना करते हुए कहा, ठीक है पूरा टिकट दे दीजिए। इतना सुनते ही कंडक्टर महोदय के चेहरे पर ऐसे भाव आए मानो युवक ने उनके हक पर डाका डालने का प्रयास किया हो। जल्दी से मुंह घुमाया और पूरे पान को गेट से बाहर फेंक कर बोले, अरे भाई, इसका क्या फायदा। ऐसे में तो सारा पैसा सरकारी खाते में चला जाएगा।
इतना सुनकर मैं भी अपनी सीट के पीछे चल रहे इस संवाद से खुद को अलग न रख सका। घूम कर देखा तो कंडक्टर युवक की सीट के पास खड़ा होकर ऐसे मुस्कुरा रहा था जैसे उसने अब तक की सबसे बड़ी नीतिगत बात कह दी हो। युवक ने सिर झटक कर कहा, ठीक है कितना देना होगा। कंडक्टर बोला, पूरे किराये का तीन हिस्सा। एक हिस्से की छूट दे दूंगा। युवक ने दृढ़ता से कहा- नहीं,बेईमानी आधी-आधी। आधा तुम रखो आधा मैं। काफी देर तक दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे। बात बनती न देख आखिरकार कंडक्टर को झुकने में ही अपना फायदा नजर आया और नकद रुपये जेब में रख अपनी सीट पर जा बैठा। उसके हाव-भाव से ऐसे लग रहा था मानो कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। इस बीच बस में बैठे बुद्धिजीवी नजर आने वाले लोग सिर्फ मुस्कुरा भर दिए थे।
स्टेशन पर उतरते ही जल्दी-जल्दी सामान समेटा और बाहर आकर बस का इंतजार करने लगा। बस में बैठते ही कंडक्टर की आवाज आई, कोई भी भारी सामान ऐसे नहीं ले जा सकता, उसका किराया अलग से देना होगा। सभी सवारियां अपने-अपने सामान की तरफ देखने लगीं। तभी एक युवक ढेर सारा बिजली और लकड़ी का सामान लेकर आया और बड़े ही अधिकार भाव से दोनों तरफ की सीटों के बीच खाली जगह पर रख दिया और निश्चिंत भाव से बैठ गया। उसे यह भी सोचने की फुर्सत नहीं थी कि उसके सामान से यात्रियों को कितनी परेशानी हो रही थी।
थोड़ी ही देर में कंडक्टर महोदय आए और पान की पीक को खिड़की के बाहर बीच सड़क पर थूक कर युवक से मुखातिब होते हुए उसका गंतव्य स्थल पूछा। युवक के बताने पर उन्होंने कहा कि इसका एक सवारी के बराबर किराया लगेगा। इतना कहकर कंडक्टर ने नकद की आस में युवक की तरफ हाथ बढ़ाया। लेकिन युवक ने साफ मना करते हुए कहा, ठीक है पूरा टिकट दे दीजिए। इतना सुनते ही कंडक्टर महोदय के चेहरे पर ऐसे भाव आए मानो युवक ने उनके हक पर डाका डालने का प्रयास किया हो। जल्दी से मुंह घुमाया और पूरे पान को गेट से बाहर फेंक कर बोले, अरे भाई, इसका क्या फायदा। ऐसे में तो सारा पैसा सरकारी खाते में चला जाएगा।
इतना सुनकर मैं भी अपनी सीट के पीछे चल रहे इस संवाद से खुद को अलग न रख सका। घूम कर देखा तो कंडक्टर युवक की सीट के पास खड़ा होकर ऐसे मुस्कुरा रहा था जैसे उसने अब तक की सबसे बड़ी नीतिगत बात कह दी हो। युवक ने सिर झटक कर कहा, ठीक है कितना देना होगा। कंडक्टर बोला, पूरे किराये का तीन हिस्सा। एक हिस्से की छूट दे दूंगा। युवक ने दृढ़ता से कहा- नहीं,बेईमानी आधी-आधी। आधा तुम रखो आधा मैं। काफी देर तक दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे। बात बनती न देख आखिरकार कंडक्टर को झुकने में ही अपना फायदा नजर आया और नकद रुपये जेब में रख अपनी सीट पर जा बैठा। उसके हाव-भाव से ऐसे लग रहा था मानो कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। इस बीच बस में बैठे बुद्धिजीवी नजर आने वाले लोग सिर्फ मुस्कुरा भर दिए थे।
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