Wednesday, June 18, 2008

क्या भाजपा के रुख से अंदरूनी लोकतंत्र को बढ़ावा मिलेगा?

गिरीश निकम का यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा हुआ है, जिसका हिंदी अनुवाद उनकी अनुमित के साथ यहां प्रकाशित कर रहा हूं। इस आलेख की मूल अंग्रेजी प्रति पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

गिरीश निकम की कलम से

भारतीय जनता पार्टी द्वारा बिहार में उपजी अंदरूनी समस्या के निदान के लिए उठाया गया कदम दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने के संदर्भ को लेकर हाल फिलहाल की सबसे उल्लेखनीय प्रगति है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार में पार्टी विधायक दल के नेता और उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का भविष्य तय करने के लिए राज्य के अपने विधायकों से गुप्त मतदान करने को कहा। भाजपा द्वारा अपने एक बेहद महत्वपूर्ण नेता का भाग्य निर्धारण करने के लिए इस तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का चुनाव करना निसंदेह सराहनीय कदम है।

हालांकि भाजपा के अंदर सुशील मोदी का दर्जा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में कम है लेकिन इसके बावजूद वह नरेंद्र मोदी की ही तरह एक दिग्गज ओबीसी नेता हैं और बिहार की राजनीति के दिग्गजों लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार के समकालीन भी हैं। इसके साथ ही सुशील मोदी राज्य में पार्टी का सबसे ज्यादा जाना-पहचाना चेहरा भी हैं। हालांकि पिछले दिनों नीतीश मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद से वह अपनी पार्टी के कुछ सवर्ण विधायकों के साथ टकराव की स्थिति में आ गए। इन विधायकों के अनुसार मंत्रीमंडल से उनकी छुट्टी के पीछे कहीं न कहीं सुशील मोदी का ही हाथ है और इसी के फलस्वरूप वे मोदी को उप मुख्यमंत्री पद से उतरवाने की जुगत में भिड़ गए।

शुरुआत में इस मामले पर टालमटोल का रुख अपनाने के बाद भाजपा आलाकमान ने राज्य के अपने सभी विधायकों को दिल्ली तलब किया। जब केंद्रीय नेतृत्व को यह आभास हुआ कि ये विधायक सीधे तौर पर अपने मन की बात नहीं कह पाएंगे तो उसने गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाई। हालांकि इस गुप्त मतदान के नतीजे को सार्वजनिक नहीं किया गया लेकिन यह खबर बाहर आई कि मोदी को अब भी अपने विधायकों का मामूली ही सही लेकिन बहुमत प्राप्त है। इस गुप्त मतदान के नतीजे के आधार पर मोदी को अपना कार्यभार संभाले रखने के लिए हरी झंडी मिल गई और आलाकमान को उम्मीद है कि राज्य में बगावत की आवाज अब शांत हो जाएगी। वैसे इसके अलावा एक और बड़ा कारण है जिस वजह से भाजपा मोदी का पल्लू नहीं छोड़ सकती है। मोदी बिहार के बनिया मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और बिहार में यही एकमात्र ऐसा मतदाता वर्ग है जो पिछले एक दशक से भी अधिक समय से पूरी तरह भाजपा के साथ है। इस वजह भाजपा मोदी को दरकिनार कर इतना बड़ा जनाधार खोने की जोखिम नहीं उठा सकती। अब भाजपा आलाकमान द्वारा राज्य विधायकों के बीच कराया गया यह युद्धविराम कब तक जारी रहता है यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इन सब के बावजूद अनजाने में ही सही भाजपा ने अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है। इस बारे में अन्य दल बातें तो जरूर करते हैं लेकिन शायद ही कभी अमल में लाते हैं।

याद कीजिए कुछ ही हफ्ते पहले कांग्रेस के उत्तराधिकारी राहुल गांधी ने अंदरूनी राजनीति में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर जोर देकर अपनी राय रखी थी। वास्तव में वह पार्टी मीटिंगों में भी यह बात उठाते रहे हैं। कांग्रेस पिछली बार पार्टी में लोकतंत्र का साक्षी तब बना था जब सोनिया गांधी और जीतेंद्र प्रसाद के बीच पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ था और इसमें उस वक्त नौसिखिया मानी जानी वाली सोनिया ने शानदार जीत दर्ज की थी। लेकिन इसके बाद से अब तक किसी ने उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखाई और यहां तक कि राज्यों में कांग्रेस मुख्यमंत्री के चुनाव से लेकर विधायक दलों के नेता और अध्यक्ष तक का चुनाव उन्हीं के इशारे से होता है जिसे तथाकथित आम राय के नाम से जाना जाता है।

यहां तक कि पार्टी के अंदर लोकतंत्र के मामले पर भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं रहा है। पार्टी के सबसे ताजा-तरीन मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा भी यह दावा नहीं कर सकते कि वह पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हैं। वास्तव में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को भी बिल्कुल एकतरफा तरीके से प्रधानमंत्री पद का अपना अगला उम्मीदवार घोषित कर दिया। भाजपा के इस फैसले के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के अन्य दलों के सामने भी आडवाणी को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा। इसी तरह पार्टी ने मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी बिना विधायकों की राय जाने गद्दी से उतार दिया और एक बाद फिर बिना विधायकों की रायशुमारी के शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया।

कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में इस प्रकार की घटनाओं का अंतहीन सिलसिला रहा है। आज की तारीख में सिर्फ लेफ्ट पार्टियों खासकर सीपीआई (एम) के भीतर ही लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और फलफूल भी रही है। सीपीएम के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनाने के मुद्दे को लेकर पार्टी ने जो रुख अपनाया कोई अन्य राजनीतिक पार्टी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकती है। 1996 में जब बसु अपने राजनैतिक कैरियर के चरम पर थे तब पोलित ब्यूरो के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके दोनों ही नेता पार्टी पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति को मनाने में असफल रहे और नतीजतन बसु प्रधानमंत्री नहीं बन सके। यह पार्टी के अंदर मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही नतीजा था।

तब पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति दोनों ने फैसला लिया था कि यह इस बात के लिए उपयुक्त समय और माहौल नहीं है कि संयुक्त मोर्चा द्वारा बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए। पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं बसु और सुरजीत के पास बहुमत के निर्णय को स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था और उन्होंने बिना किसी शोरशराबे के इसे स्वीकार भी किया।

यह ऐसी घटना है जिसके बारे में भाजपा और कांग्रेस के संदर्भ में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जहां तक व्यक्ति केंद्रित पार्टियों मसलन समाजवादी पार्टी, तेलगु देशम, द्रमुक व अन्नाद्रमुक आदि का सवाल है तो वहां ऐसा होना असंभव से कम नहीं होगा।

इसलिए भाजपा द्वारा बिहार में सुशील कुमार मोदी के भविष्य के लिए गुप्त मतदान करवाना खासा रोचक है। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा ने यह उपाय सिर्फ एक बार के लिए आजमाया है या वह इस लोकतांत्रिक तरीके का अनुसरण अहम पदों पर काबिज होने वाले व्यक्तियों के चुनाव के लिए आगे भी करेगी। यहां तक भाजपा आलाकमान भी इसे अपने लिए बाध्यकारी नहीं बनाना चाहता। इसके पीछे के कारण स्पष्ट हैं। ऐसा नहीं है कि पार्टी हर राज्य में इस तरीके को अपना पाएगी क्योंकि सब जगह की क्षेत्रीय स्थितियां और परिस्थितियां भिन्न होगी।

हालांकि दलगत राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली के अभाव के पीछे की मूल वजह बिल्कुल अलग है। मुख्य धारा की किसी भी पार्टी ने अपने कैडरों और नेताओं में लोकतांत्रिक समझ को जगाने की कोशिश नहीं की है। इसके बावजूद यह तथ्य चौंकाने और रोमांचित करने वाला है कि यह यही नेता और कैडर जो अपनी पार्टी के संरक्षण वादी संस्कृति के अधीन होते हैं और जिनके अंदर अंदरूनी लोकतंत्र की जागृति नहीं होती है चुनावों में अपनी जीत और हार को बड़े ही विनम्र तरीके से स्वीकार करते हैं। लोकसभा, विधानसभा या पंचायत चुनावों में इन नेताओं की हार के पीछे और भी तमाम तरह के कारण मौजूद होते हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह कभी देखने में नहीं आया कि इन पराजित नेताओं द्वारा विजयी पक्ष को सत्ता हस्तांतरण में कोई खास दिक्कत आती हो। तब क्या वह है कि पार्टियां अंदरूनी राजनीति में लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने में हिचकिचाहट दिखाती है? अब भाजपा ने रास्ता दिखाया है तो हम उम्मीद कर सकते हैं मुख्य धारा की सभी पार्टियां अंदरूनी लोकतंत्र को मजबूत बनाने की ओर कदम उठाएगी।

2 comments:

संतराम यादव said...

wakai, majboori men hi sahi par bjp ne ek nai shuruaat jaroor ki hai.

अजित वडनेरकर said...

समाज हित में हर पहल स्वागत योग्य होती है। दिक्कत तब होती है जब उस पहल से हासिल परिणामों पर समाजवादी नज़रिये से अमल नहीं किया जाता और धीरे - धीरे फिर एक किस्म की आपराधिक उदासीनता पसरने लगती है।