Tuesday, June 24, 2008

मिस्टर प्राइमिनिस्टर बड़ा मुद्दा क्या है, करार या महंगाई?

पिछले साल एक समाचार पत्र द्वारा आयोजित किए गए सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी संरक्षक और मुख्य समर्थक कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कहा था कि संप्रग सरकार किसी एक मामले को लेकर चलने वाली सरकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे अमेरिका के साथ परमाणु करार को किसी तर्कसंगत अंत तक न पहुंचा पाने के गम के साथ भी रहने को तैयार हैं। तब यह महसूस किया गया करार को आईएईए में ले जाने को लेकर चली उबाऊ व अंतहीन बहस और इस पर बनी संप्रग-वाम समन्वय समिति मजह दिखावे भर के लिए है।
हालांकि मनमोहन सिंह निश्चित तौर पर ऐसी सोच नहीं रखते थे। अब ऐसी स्थिति आ गई है कि संप्रग सरकार का भविष्य अनिश्चितता के तराजू में झूल रहा है और इसे बचाने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। यह सोचने वाली बात है कि ऐसी स्थिति आई क्यों? क्या प्रधानमंत्री को यह अचानक महसूस होने लगा कि वह अपने कार्यकाल को यादगार बनाने का एक अहम और आखिरी मौका चूक रहे हैं, क्या हमारे प्रधानमंत्री करार न हो पाने के कारण अगले महीने होने वाले जी आठ सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के सामने शर्मिंदा होने से बचना चाहते हैं? या क्या वह इस बहाने महंगाई की बढ़ती मार को थामने में सरकार की असफलता को ढांकना चाहते हैं?
इन सवालों जवाब ढूंढने की कोशिश करने से पहले उस वजह को जानना जरूरी है जो प्रधानमंत्री और वामदलों के बीच ताजा तकरार की वजह है। यह याद रखने वाली बात है कि भारत-अमेरिका रणनीतिक समझौता संप्रग के घटक दलों और वामदलों के बीच सरकार बनाने से पहले वर्ष 2004 की गर्मियों में हुए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था। संयोगवश यह 2004 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के घोषणापत्र का भी हिस्सा नहीं था। यह तय है कि अगर कांग्रेस उस वक्त इसे न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल करने पर जोर देती तो उसे इतनी आसानी से सत्ता नसीब नहीं होने वाली थी। इसलिए जुलाई, 2005 में अपने अमेरिकी दौरे के वक्त जब प्रधानमंत्री ने इस साझेदारी को देश के सामने रखा तो वामदल क्रोधित हो गए।
यह कोई गुप्त रहस्य नहीं है कि वामदल पूंजीवादी और साम्राज्यवादी माने जाने वाले अमेरिका के साथ वैचारिक मतभेद रखते हैं। साथ ही जार्ज बुश का अमेरिकी राष्ट्रपति होना उनके लिए आग में घी डालने का काम करता है। बुश वामपंथियों के बीच सबसे ज्यादा नफरत किए जाने वाले शख्स हैं। वामपंथी ही क्या दुनिया के अन्य राजनीतिक मतों वाले लोगों में बुश कोई लोकप्रिय व्यक्ति नहीं हैं।

तब वामपंथियों को यह भरोसा देकर शांत किया गया कि संप्रग सरकार अमेरिका के साथ समझौते को लेकर जो भी कदम उठाएगी उसमें पूरी पारदर्शिता बरती जाएगी और इसके लिए उन्हें भी विश्वास में लिया जाएगा। वामपंथियों को यह भी कहा गया था कि उनकी सहमति के बाद ही सरकार इस मामले में आगे बढ़ेगी। अमेरिकियों को इस करार के लिए राजी कर 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद से अंतरराष्ट्रीय परमाणु बिरादरी से अलग-थलग पड़े भारत को मुख्य धारा में लौटाने के लिए काफी प्रशंसा बटोर चुके मनमोहन सिंह ने उस वक्त कई कदम उठाए। भारतीय परमाणु संयंत्रों को नागरिक और रक्षा इस्तेमाल वाले संयंत्रों के रूप में विभाजित करना उनके इन्हीं कदमों में से एक था। उनके ऐसे कदमों की काफी सराहना हुई लेकिन वामदलों के साथ-साथ वैज्ञानिकों और नाभकीय प्रौद्योगविदों के बीच सरकार के कदमों के विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।
प्रधानमंत्री हालांकि उन्हें यह कहकर आंशिक रूप से समझा पाने में सफल रहे कि सरकार किसी भी सूरत में भारतीय हितों के साथ समझौता नहीं करेगी। याद कीजिए जब यह सब घटित हो रहा था तब भी वामपंथी लगातार कह रहे थे कि करार न्यूनतम साझा कार्यक्रम की परिधि से बाहर की बात है। साथ ही उन्हें अमेरिकी मंशा पर भी गहरा शक था। तब तक मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी करार के विरोध में उतर चुकी थी। हालांकि पार्टी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकती थी उनके विरोध का आधार भी वही है जो वामपंथियों का है। सरकार का यह दावा कि करार से भारत की परमाणु ऊर्जा की क्षमता बढ़ेगी कमजोर होने लगी। भाजपा के अरुण सौरी से लेकर रणनीतिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चलाने और कई नाभिकीय वैज्ञानिकों द्वारा ऊर्जा जरूरतों और नाभिकीय ऊर्जा की मौजूदा स्थिति पर वृहद शोध के आधार पर लिखे गए कई आलेखों ने सरकार के दावे को कड़ी चुनौती दी। इन लोगों ने अमेरिका की मंशा पर भी सवाल उठाए साथ इस बात पर भी आपत्ति जताई कि करार पर अपारदर्शी तरीके से आगे बढ़ा जा रहा है। करार पर कई सवाल और संदेह उठे जो आज भी अनुत्तरित है।
इसके बावजूद प्रधानमंत्री अमेरिका उन्मुखी मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रभाव में यह कहते रहे कि करार भारत की भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के लिए बेहद जरूरी है और इसे टाला नहीं जा सकता है। करार से जुड़े सेफगार्ड को अंतिम स्वरूप देने के लिए आईएईए जाने की बात पर भी वामदल अनिच्छा के साथ कुछ शर्र्तो पर सहमत हुए। इन्हीं में एक मुख्य शर्त यह थी कि जब तक करार पर आमसहमति नहीं बन जाती है सरकार आगे नहीं बढ़ेगी।

लेकिन अब हम देख रहे हैं कि वामपंथियों, भाजपा नेताओं और वैज्ञानिक समुदाय के कई लोगों की असहमति के बावजूद प्रधानमंत्री ने करार पर आगे बढ़ने का फैसला कर खुद के साथ-साथ अपनी सरकार के भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। इस कदम से वामदलों का प्रधानमंत्री पर जो थोड़ा-बहुत विश्वास था वह भी खत्म हो गया है। प्रधानमंत्री और वामपंथियों के बीच विश्वास की यही कमी दोनों धड़ों के बीच मौजूदा तकरार की सबसे बड़ी वजह है और इससे कांग्रेस और संप्रग की स्थिति कमजोर हुई ही है साथ ही इनकी भविष्य की संभावनाओं को भी गहरा धक्का लगा है।
आखिर प्रधानमंत्री के इस कदम के पीछे क्या वजह हो सकती है। वैसे तो यह कहना उचित नहीं होगा कि वह व्यक्तिगत ख्याति के लिए ऐसा कर रहे हैं लेकिन उनके इस कदम से उस तर्क को बल मिलता है कि करार के दो मुख्य कलाकार मनमोहन सिंह और जार्ज डब्ल्यू बुश इसके माध्यम से अपने-अपने कार्यकाल को यादगार बनाना चाहते हैं। जबकि बुश पहले से ही एक महत्वहीन राष्ट्रपति बन चुके हैं, अपने हालिया कदमों से मनमोहन ने भी यह सुनिश्चित कर दिया कि वह भी एक महत्वहीन प्रधानमंत्री हैं जिनके लिए संप्रग के दोबारा सत्ता में आने के बावजूद फिर प्रधानमंत्री बन पाना बेहद मुश्किल है।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्यों दो महान लोकतांत्रिक देश एक ऐसे करार पर आगे बढ़े जिसे भारतीय संसद में तो बहुमत प्राप्त नहीं ही है साथ अमेरिका में भी इस मामले पर बहुमत संदेहास्पद है। क्या हम इस मसले पर दस महीने और इंतजार नहीं सकते जब दोनों ही देशों में नई सरकारें होंगी और वे इस पर बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में होंगी। और क्या मनमोहन अपने उस बयान पर कायम नहीं रह सकते जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार किसी एक मुद्दे के लिए ही नहीं है? फिलहाल महंगाई नाम का बड़ा मुद्दा या यूं कहें चुनौती उनके सामने मुंह बाए खड़ी है। अगर वह इस पर काबू पाने में सफल रहते हैं तो उनका कार्यकाल ज्यादा प्रशंसनीय कहलाएगा और उन्हें एक यादगार प्रधानमंत्री के तौर पर और भी ज्यादा संख्या में लोग याद रखेंगे।

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

करार के बाद देश में बिजली सस्ती होगी या महंगी? और कितनी?

अनिल रघुराज said...

सोलह आने सही बात सामने रखी है आपने। दिक्कत ये है कि अमेरिकी लॉबी संधि को हर हाल में लागू करने में लगी है और वामपंथियों को चीन का हितैषी साबित कर अविश्सनीय बनाना चाहती है। और ये लॉबी अपनी इस कोशिश में कुछ हद तक कामयाब भी रही है क्योंकि वामदल अपनी बात पूरी तरह प्रचारित नहीं कर पाए हैं।